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तत्त्वभावना
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कि इन्द्रियों के विषय भोगों में इस शरीरको रमाकर अपना बुया न करें। यह शरीर तो काने साठे (गन्ने) के समान है जिसको खाने से मजा नहीं आता है परन्तु यदि उसे बो दिया जावे तो मीठे-२ साठोंको नैदा करता है । इसी तरह इस शरीरके भोगने में शांति नहीं मिलती है किन्तु यदि इसे तप संयम ध्यान में लगा दिया जावे तो मोक्षके अपूर्ण सुखोंको व स्पति साताकारी सुखों को पंदा करा देता है । इसलिए शरीर से मोह छोड़कर आत्महित करना ही श्रेय है। श्री शुभचन्द्राचार्य ज्ञानार्णव में कहते हैं
अजिनपरलगूढ़ पंजरं कीकसानाम् । कुथितकुणपगन्धैः पूरितं मढ़ गाढम् । यमबदन निषण्णं रोगभोगोन्द्रगेहं।
कथमिह मनुजानां प्रीतये स्याग्छरीम् ।।१३ भावार्थ-हे मूढ़ प्राणी ! इस संसारमें यह मनुष्योंका शरीर चर्मके पदेशे ढका हुआ हाड़ोंका पिंजरा है, बिगड़ी हुई पीप की दुर्गंध से खूब भरा हुआ है तथा रोगरूपी सो का घर है और काल के मुख में बैठा हुआ है, तब ऐसे शरीर से किस तरह प्रेम किया जावे। श्री पद्मनंदि मुनि शरीराष्टक में कहते हैं
भवतु भवतु यादक तादृगेतद्वपुर्मे । हृदि गुरुवचनं चेदास्त तत्तत्ववशि । त्वरितमसमसारानंदकंदायमाना।
भवति यदनुभावादक्षया मोक्षलक्ष्मीः ॥७॥ भावार्थ-यद्यपि यह शरीर ऐसा अपवित्र क्षणिक है सो ऐसा ही रहो परन्तु यदि परम गुरुका वचन जो तत्त्व को दिखलानेवाला है मेरे मन में रहे तो उसके प्रभाव से अर्थात् उस उपदेश