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तत्त्यभावना
न स्वर्ग के देवता (न अण्डजा:) न पक्षीगण (सकलाः) ये सर्व ही (न त्या) हों छोटे लाते हैं।
(नोट--यहां एक न ऊपर से लगाना उचित है।)
भावार्थ-जैसे मरण के आधीन सर्व शरीरधारी प्राणी हैं वैसे कामदेव के आधीन सर्व प्राणी हो रहे हैं । मरण जसे तोन लोक के प्राणियों को सताता है वैसे कामदेव भो प्रायः सब प्राणियों को सताता है जैसे मरण को निवारा नहीं जा सकता वैसे कामदेव को निकारना कठिन है। जैसे मरण को बुद्धिवान, मुर्ख, धनवान, निधन, साधु, संत, वोर, कायर, पशु, पक्षी, देव, नारकी आदि किसी भी शरीरधारी को नहीं छोड़ता है वैसे हो कामदेव ने प्रायः सब शरीरधारियों को सता रक्खा है। मैथुन संज्ञा अर्थात् काम को चाह एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों में है। यहां तक आचार्यने कामदेव की प्रबलता इसीलिए दिखाई है कि यह कामभाव परिणामों को बहुत रागी व मोही बना देता व इसके वश में बड़े-२ साधु व वीर पुरुष भी आकर कायर व दोन हो जाते हैं । यह काम इस जीव का महान शत्रु है । इस जन्म में यह काम प्राणी को अन्धा बनाकर धर्म कर्म से भ्रष्ट कर देता है तथा धर्म अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों से हटा देता है और परलोक में दुर्गति में पटक देता है। जहां से भ्रमण करते-२ मानवजन्म पाना बहुत दुष्कर हो जाता है। जिन स्त्री पुरुषों ने कामभाव को जीता है वे ही साम्यभाव में भले प्रकार रम सकते हैं, वे ही सच्चे सुख व शांतिको प्राप्त कर सकते हैं। कामभाव से बचने के लिए हरएक बुद्धिमान प्राणो को सदा ही यत्न करना योग्य है। ब्रह्मभाव और काम भाव में वैर है । ब्रह्मभाव जब निराकुलताका कारण है तब कामभाव तीव्र आकुलता