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तस्वभावना वैराग्यं परमं विहाय शमिना निर्वाणवानक्षमम् ॥२२॥
अन्ययार्ष-(अयम) यह (मनोभूः) कामभाव (शश्वत्) सदा हो (दुःसहदुःखदानचतुरः) असहनीय दुःख देने में चतुर (वैरी) शत्रु है । इसको (ध्यानेन एव) आत्मध्यान से ही (नियम्यते) वश किया जा सकता है । (न तपसा) न तो तप करने से (न ज्ञानिनाम संगेन) न ज्ञानियों की संगति से यह बस होता है अथवा (मिनां) शांत चित्तवालोंको (निर्वाणदानक्षम) मुक्ति में समर्पओ (दहावयासककोजानित दह और आत्माके भिन्न-२ ज्ञानसे उत्पन(निश्चलं )निश्चल(स्वाभाविक) व स्वाभाविक (परमं) उत्कृष्ट (वैराग्यं) वैराग्य है (विहाय) उसको छोड़कर और कोई उपाय नहीं है।
मावाथ यहां पर आचार्य ने कामभाव मिटाने के लिए आत्मध्यान को ही मुख्य कारण बताया है और उस आत्मध्यान को हो उत्तम वैराग्य कहा है। यह बात बिलकुल ठीक है कि जहां वैराग्य होता है वहीं राग मिटता है यदि वैराग्य न हो और नाना प्रकार के तप किए जावें तथा विद्वान पंडितों को संगति में रहकर ज्ञान की चर्चा सुनी जाये तब भी कामका विकार मनसे नहीं हटता है । इसलिए स्वाभाविक वैराग्य' की प्राप्ति करनी उचित है। शरीर और आत्मा इन दोनों का सम्बन्ध दूध और पानों की तरह एकमेक हो रहा है । जिसने जिनवाणीक अभ्यास से भलेप्रकार समझ लिया है कि आत्मा का स्वभाव भिन्न है और शरीर का स्वभाव भिन्न है उसीन आत्माके सच्चे स्वरूप का पता पाया है । आत्मा स्वतन्त्र एक द्रव्य है-गुणपर्यायमय है, चेतना, सुखचरित्र (वीतरागता) वीर्य सम्यक्त आदि इसके विशेष गुण हैं । तथा इन गुणों में परिणमन होना सो पर्याय या