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संगति में आकर मलीन हो जाते हैं, तथा यह ऐसा कच्चा है कि जैसे कच्ची मिट्टी का घड़ा । जराभी रोग शोक आदि क्लेशोंकी ठोकर लगती है कि यह शरीर खंडित हो जाता है। इस शरीर में रात दिन बाधाएं रहती हैं, कभी भूख कभी प्यास, कभी आलस्य सताता है, कभी चिंता की आग में जला करता है । शरीराधीन इंद्रियोंके भोगकी चाह महान जलन पैदा करती है । इष्ट पदार्थोंका वियोग परम आकुलित कर देता है। इस शरीर का मोह जोवको नरक निगोद की दुर्गति में पटके देनेवाला है । सथापि जो कोई बुद्धिमान प्राणी है वह ऐसे शरीर से मोह नहीं करते किन्तु इसको स्थिर रखते हुए इसके द्वारा परम सुख दाई मोक्षपद या साताकारी स्वर्गपद प्राप्तकर लेते हैं। क्योंकि बिना मानवदेह के उच्च स्वर्गपदोंका व मुक्तिपदका लाभ नहींहो सकता है। इसमें वे अपनी कुछ हानि नहीं मानते हैं; क्योंकि यह देह तो बहुत कष्टप्रद है व शीघ्र मरणके आधीन है, इसका मोह तो उल्टी तीव्र हानि करता है तब यही उचित है कि इसको चाकर की तरह अपने बघा में रक्खा जावे और इसको ध्यान स्वाध्याय आदि तप साधनमें लगा दिया जावे। तब आत्मज्ञान के बलसे यहां भी कष्ट नहीं और फल ऐसा मिले कि जिसकी जरूरत थी व जिसके बिना संसार में महादुःखी था, यदि किसी के पास कोई निर्थक वस्तु ऐसी हो जिसका रखना निंदनीय हो व जिससे कोई मतलब न निकलता हो तब यदि कोई कहे कि यह वस्तु तू दे दे और बदले में सुखदायी अमोलक रत्न तुले ले तो बुद्धिमान मानव जरा भी संकोच व देर न करेगा और बढ़ा ही लाभ मानकर उस रत्न को ले लेगा ।
प्रयोजन कहने का यह है कि बुद्धिमान प्राणी को उचित है
तत्त्वभावना