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तत्त्वभावना
निराकुल भाव का अनंतकाल के लिए अधिकारी हो जाता है। जैसा श्री ज्ञानार्णव में शभचन्द्र आचार्य कहते हैं कि इस तरह विचारकर आत्मानुभव पाना चाहिए
। तावन्मां पीड़यत्येव महाबाहो भवोद्भवः। || यावज्ज्ञानसुधाम्भोधौ नाचगाहः प्रवर्तते ।।११
भावार्थ-जब तका ज्ञानरूपी समुद्र में मेरा अवगाह नहीं हुआ है तब तक ही संसार से उत्पन्न हुआ महादाह मुझं पीड़ित करता है
तत्सरूपाहितस्यान्तस्तद्गुणग्रामरंजितः। योजयत्यात्मनात्मानं तस्मिस्तद्रूपसिद्धये ॥३५।। अनन्यशरणीध य स तस्मिल्लीयते तथा । घ्यातघ्यानोमयाभावे ध्येयेनश्यं यथा ब्रजेत् ।।३७॥ सोऽयं समरसीमावस्तदेकोकरणं स्मृतम् ।
अपृथकत्वेन यत्रात्मा लीयते परमात्मनि ॥३८।। भावार्थ-जो उस शुद्धात्मा के स्वरूप में मन लगाकर उसीके गुणों में रंजायमान हो जाता है वह अपने से ही अपने मात्माको अपने में अपने आत्माके स्वभाव की सिद्धिके लिए जोड़ देता है । वह अन्य वस्तु का आश्रय छोड़कर उस आत्मा में ऐसा लीन हो जाता है कि ध्याता व ध्यान का भेद मिटकर ध्येय पदार्थ से एकतान हो जाता है। यही वह समरसी भाव है, यही एकीकरण है जहाँ मात्मा परमात्मा में एकी भाव से लय हो जाता है। यही आत्मानुभव संसारवन से निकालने वाला मित्र है।