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तत्त्वभावना
विना विपनलमन्यापक्ष यास्पक्ष । करणग्राह्यमेतद्धि यवक्षार्थोत्थितं सुखम् ।।१।। यद्यपि दुर्गतिबोज तृष्णासंतापपापसंकलितम् ।
तदपि न सुखसंप्राप्य विषयसुखं वांछितं नृणाम् ।।२४॥ भावार्थ-जिनेन्द्रों ने कहा है कि इंद्रियों से होने वाला सुख कभी तृप्ति नहीं देता है। यह तो मोह को दावानल अग्नि के बढ़ाने को महान ईंधन का काम करता है। यह असाता की परिपाटी का बीज है । इससे आगामी दुःख मिलता ही रहता है। यह इंद्रिय सुख विघ्नों का बीज है । सेवते-सेवते हजारों अंतराय पड़ जाते हैं, आपत्तियों की जड़ है। इस सुख के आधीन प्राणी असत्य, चोरी, कुशोल, हिंसादि पापों में फंसकर इस लोक में ही अनेक दुःखों में पड़ जाता है। यह सुख पराधीन है, अपने ही आधीन नहीं है । तथा भयभीत रखने वाला है और इस सुखको इंद्रियां यदि बलवती हों तब इंद्रियां ही ग्रहण कर सकती हैं। यह सुख यद्यपि तीव राग के कारण से दुर्गति का बीज है और तृष्णा संताप तथा पापों से भरा हुआ है तथापि इच्छित सुख सहज में नहीं मिलता है, बड़ा कष्ट सहना पड़ता है।
ऐसा ज्ञान व श्रद्धान होने पर भी कि ये इंद्रिय विषयों के सुख ग्रहण करने योग्य नहीं है, यह अविरति पुरुष अप्रत्याख्यान आदि कषायों को न दबा सकने के कारण उनके जोर से व्याकुल होता हुआ विषयभोगों को नहीं त्यागता है । त्यागना चाहता है परन्तु त्याग नहीं कर सकता है। इसीलिए यह विचारता है कि मैं किससे पूछू व किसका आश्रय लूं व क्या उपाय करूं जिससे