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तत्त्वभावना
..----- -- (पादौ) दोनों चरण (सदा) हमेशा (स्थेयास्तां) ठहरा जायें (उत्कीणों इच) मानों दिल में अंकित हो जावें (कीलितो इव) या मानो कील के समान गड़ जायें (स्यती इव) या मानो सी जावें (अश्लिष्टी इव) या मानों चस्पा हो जावें (बिबितौ इव) या मानों छाया की तरह जम जावं (निखाती इव) या मानों अड़ हुए के समान हो जावें (लिखितो इव) या मानों लिख दिए जावें (बद्धौ इव) या मानों बांध दिए जावें अर्थात् मैं कभी आप के चरणों को न भूलूं ।
भावार्थ--यहां आचार्य ने भक्तिभाव को भले प्रकार दिखलाया है । यह कहना कि आपके चरण मेरे हृदय में जमकर बैठ जावे कि मानों दिल उनके साथ एकमेक हो जावें इस बात के बताने का एक अलंकार मात्र है कि आपका वास्तविक भात्मिक स्वरूप मेरे मन में जम जावे अर्थात् मेरा मन आपके ज्ञानानंदमई शांत स्वभाव में रत हो जावे, इसका भी भाव यही है कि मेरे मनसे सब अनात्मीक भाव हट जावें और एक आत्मीक शुद्ध भाव प्रगट हो जाये । इसको स्वात्मानुभव कहते हैं। वास्तव में यही दीपक है जिससे अनादिकाल का मोह का अंधेरा दूर होता है । इसी ज्ञानाग्नि के तेज से अनेक पापों के ढेर जल जाते हैं।
वास्तवमें जो आत्माको जानते हैं वेही अहंत परमात्माको जानते हैं । जो अरहंत परमात्माको पहचानते हैं वे ही आत्माको जानते हैं। क्योंकि निश्चयनय से आश्मा और परमात्मा का स्वभाव एक समान है। अत्यन्त गाढ़ भक्ति भी द्वैत से भाव में ले जाने के लिए निमित्त कारण है । यह भी इस श्लोक का आशय झलकता है कि जहां तक निर्विकल्प समाधि या शुद्धोपयोग की ऊंची अवस्था प्राप्त न हो वहां तक श्रीअहंत की भक्ति, भावोंको मोक्षमार्ग में लगाए रखने के लिए निमित्त है इसलिए भक्ति करते