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तस्वभावना
श्री शुभचन्द्रजी ने ज्ञानावर्णव में इस भांति कहो है
__ शार्दूलविक्रीडित छन्द धर्मः शर्मभुजंगपुंगषपुरोसारं विधातुं समो। धर्मः प्रापितमत्यलोकपिपुलप्रीतिस्तवाशसिना ॥ धर्मः स्वर्नगरोनिरन्तरसुखास्वादोक्यस्यास्पदम् । धर्मः किं न करोति मुक्तिललनासंभोगयोग्यं जनम् ॥२२ भावार्थ- यह धर्म धर्मात्मः पुरुषोंको अनुभमुरी सार सुध के प्राप्त करानेको समर्थ हैं । यह धर्म मध्यलोकके महान चक्रवर्ती आदिके सुखोंको देनेवाला है, यही धर्म स्वर्ग को निरन्तर रहने वाले सुखोंके प्रगट कराने का उपाय है, यही धर्म प्राणीको मुक्ति रूपी स्त्रीके भोगने योग्य बना देता है। धर्म हमारा क्या क्या उपकार नहीं करता है ? वास्तव में जिनधर्म का स्मरण तत्व. भावना है । इस भावना को कभी नहीं भूलना चाहिए।
मूल श्लोकानुसार मालिनी छन्द परम फठिन कर्म शैलदलने सुवनं । दुस्तर भवसिधु तारणे सारपोतं ।। समलजगतसत्वं रक्षकर्ता पितासम् ।
जिनकथितं धर्म रक्ष भवसे सदा हम ।।१३ उत्थानिका—आगे जिनवाणी से प्रार्थना करते हैं--- यन्मात्रापश्याक्यवाच्यविकलं किंचिन्मयाभाषितम् । मालस्यास्य कषायवर्पविषयव्यामोहसक्तात्मनः ॥ वाग्वेषी जिनवक्त्रपनिलया तन्मे क्षमित्वाखिलं । वस्वा नाम विशुद्धिभूर्षिततमां देयावनिय प॥१४॥