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तस्वभावना
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निज कर्म बसाएं सुख दुःख पाए होत सदा ये नहि अपने । इम जान सुबुद्धी आतम शुद्धी कर निज बुद्धो प्रगटपने ॥ उत्थानिका- आगे कहते हैं कि धर्म हो जीवका परममित्र हैबुर्दामोत्कर्मशैलदलने यो दुनिवारः पविः । पोतो दुस्तरजन्म सिंधुतरणे यः सर्वसाधारणः ॥
निःशेषशरीरिरक्षणविधौ शश्वत्पितेवावृतः । सर्वज्ञ ेन निवेदितः स भवतो धर्मः सदा नोऽसु १३॥ अन्वयार्थ -- (यः) जो ( दुर्दा मोतिकर्मशैलदलने) कठिनता ने नाश करने योग्य बड़े कठोर कर्मरूपी पर्वतों को चूर्ण करने में ( दर्शनवार: ) किसोसे हटाया जा न सके ऐसा (पक्षिः) बा है (यः) जो (दुस्तरजन्मसिधुतरणे) कठिनता से पार होने योग्य ऐसे संसार समुद्र से पार ले जाने में (सर्व साधारणः ) सर्व जोवों के लिए एक रूप सामान्य (पोतः ) जहाज है (यः) जो ( निःशेषशरीरिरक्षणविधौ ) सर्व शरीरधारी प्राणियों की रक्षा करने में (पिता इब ) पिता के समान ( भारत ) सदा ( आदृतः ) माना गया है ( स ) वह ( सर्वज्ञेन ) सर्वज्ञ भगवान से ( निवेदितः ) कहा हुआ (धर्मः ) धर्म (नः) हमें ( भवतः ) संसारसे ( सदा ) हमेशा (अवतु ) रक्षित करे ।
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भावार्थ - यहां आचार्य ने जिनधर्म की यथार्थ महिमा बताई है। असल में जो जिनधर्म की शरण ग्रहण करते हैं उनकी सदा रक्षा होती है । जनसिद्धांत ने बताया है कि जब इस जीवके शुद्ध वीतराग भाव होते हैं तब तो कर्मोकी निर्जरा होती है तथा जब शुभ भाव होते हैं तब पूण्य कर्म का बंध होता है। पुण्य बंध दुःखों से बचाता है तथा वीतराग भाव कम्मल को हटाकर मुक्ति