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होगी, इनकी प्रीति शोकसागर में डुबानेवाली होगी। क्योंकि ये सब पदार्थ एक दिन छूट जाएंगे या हम छोड़ेंगे या वे छोड़ेंगे। खास ध्यान अपने आत्माकी तरफ रक्खो। हमें उचित है कि हम अपने आत्मा के सच्चे स्वरूपको जो निश्चय से परमात्मा के समान आता दुष्टा अतिना है पहनाने उसपर विश्वास लावें व उसका ध्यान करें तो हमको सुख व शांतिका लाभ होगा और हम जो आज अपवित्र हैं वे धोरे २ पवित्र होते चले जाएंगे । वास्तव में आत्मा की प्रीति हमको पवित्र करने वाली है और शरीर की व शरीर के सम्बन्धियों की प्रीति हमें अपवित्र करनेवाली हैं। सुभाषितरत्न संदोह में श्री अमितगति महाराज कहते हैंकिमिह परमसौख्यं निःस्पृहत्वं यदेत किमथ परमदुःखं सस्पहत्वं यदेतत् ॥ इति मनसि विधाय त्यक्ससंगाः सदा ये ।
तत्यभावना
विवधति जिनधर्मं ते नराः पुष्पवन्तः ॥१४॥
भावार्थ - इस संसार में परम सुख क्या है तो वह एक इच्छा रहितपना है तथा परम दुःख क्या है तो वह इच्छाओं का दास हो जाना है । ऐसा मन में समझकर जो पुरुष सर्व से ममता त्यागकर जिन धर्म को सेवन करते हैं वे ही पुण्यात्मा व पवित्र है | शरीर व शरीर के सम्बंधियों के संबंध में चिन्ता करना इच्छाओं के पैदा करने का बीज है, इनसे मोह, त्यागना ही इच्छाओं के मिटाने का बीज है ।
मूल श्लोकानुसार त्रिभंगी छन्द
बहू यत्न कराए वर्द्धन पाए देह न थाए जहं अपनी
तहं पुत्र कलश्रं पुत्री मित्रं जामानं भगिनि जननी ॥