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तत्त्वभावना
सदबुद्धि ऐसो चित्त जिसके तत्त्व निज पहचानता । बह बंध में पड़ता नहीं अग जंतु बंधन ठामता ॥११॥
उत्पानिका-फिर भी उपदेश करते हैं कि संसार के मोह में न पड़के आत्मकल्याण करो।
चित्रोपायविधितोपि न निजो केहोपि यतात्मनो। भावाः पुत्रालमित्रतनयाजामाततातावयः ॥ तत्र स्वं निज कर्मपूर्ववशगाः केवां भवन्ति स्फुटं। विज्ञायेति मनीषिणा निजमतिः कार्या सदात्मस्थिता ॥१२॥
अम्बयार्थ-(यत्र) जिस संसार में (चित्रोपायविवर्धितः) अनेक उपायोंसे पालन-पोषण करके बढ़ाई हुई (अपि)भी (निजदेहोऽपि) यह अपनी देह भी (आत्मनः न ) अपनी नहीं होती है (तत्र) वहा (निजपूर्वकर्मयशगः) अपने-२ पूर्व में बांधे हुए कर्मों के वश पड़े हुए(पुत्रकलबमित्रतनयाजामातृतातादय:) पुत्र, स्त्री, मित्र, पुत्री, जमाई व पिता आदिक (भावा: बिलकुल जुदे पदार्थ (केषां) किन जोवों के (स्व) अपने (स्फुट) प्रगटपने (भवन्ति हो सकते हैं (इति) ऐसा (विज्ञाय) जान करके (मनी षिणा) बुद्धिमान मानव को (सदा) सदा(निजमति:) अपनी बुद्धि (आत्मस्थिता) अपने आत्मा में स्थिर (कार्या) करनी उचित है।
भावार्थ-- यहाँ फिर आचार्य ने जगतके सम्बन्ध को नाशवन्त झलकाया है। जगत के मोही प्राणी अपने इन्द्रियों के विषय भोग में सहकारी स्त्री, पुत्र, मित्र आदिकों से राग करते हैं व जो बाधक हैं उनसे द्वेष करते हैं। ये सब सचेतन पदार्थ बिलकुल हमसे जुदा हैं, ये सब अपने-२ भिन्न-२ कर्मों को बांधकर भिन्न भिन्न गतियों से आए हैं और इस जन्म में भिन्न-२ कर्म बांधकर