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नहीं है, मेरा स्वरूप सर्व अन्य आत्मद्रव्यों से भी निराली सत्ता का रखने वाला है, मेरे में अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का तो अस्तित्व है परन्तु परद्रव्ध क्षेत्र काल भावका नास्तित्व है। इस भेद विज्ञान के कारण से वह सदा आत्मसुख के स्वाद का उत्सुक रहता हुआ अपने आत्मा का मनन किया करता है। इसलिए उसका आत्मा संसार के बढ़ाने वाले कर्मों से गाढ़ बन्धन में नहीं पड़ता है। आचार्य ने प्रेरणा की है कि ये भव्यजीवो ! यदि तुम समताभाव को पाना चाहते हो तो इस भेद विज्ञान का भले प्रकार अभ्यास करो, यही स्वामुभव को जगाने वाला है । एकत्व अशीति में पद्मनंद मुनि कहते हैं
तत्त्वभावना
हेयं हि कर्म रागादि तत्कार्यं च विवेकिनः । उपादेयं परं ज्योतिरूपयोगकलक्षणम् । यवैव चतन्य महंतदेव तदेव जानाति तदेव पश्यति। सवेव बँक परमस्ति निश्चयाद्गतोस्मि भावेन तदेकतां
परम् ।। ७५-७६।।
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भावार्थ- ज्ञानी पुरुषों को उचित है कि रागादि सब कम को त्यागने योग्य समझकर इनसे मोह छोड़ दें और ज्ञानदर्शन मई उपयोग लक्षण के धारी परमज्योतिरूप आत्मा को जो ग्रहण करने योग्य है ग्रहण करले जो कोई चैतन्यमई है वही में हैं, वही जानता है, वही देखता है, वही निश्चय से एक उत्कृष्ट पदार्थ है, मैं उसी के साथ परम एक भाव को प्राप्त हो गया हूँ । इस प्रकार की भावना ही स्वानुभव को उद्योत करने वाली हैं। मूलश्लोकानुसार छन्द गीता
मैं नियत दर्शन ज्ञानमय नहि कर्म बंधन राखता । मैं तो किसी का हूं नहीं परमाव मम नहि छाजता ॥