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तस्वभावधान
पदार्थों में ममकार है कि यह तन मेरा है, यह धन मेरा है, यह राज्य मेरा है, यह उपवन मेरा है, यह घर मेरा है, यह देश मेरा है, यह नगर मेरा है, यहां तक मेरा ज्ञान दर्शन सुख वीर्य स्वभाव मेरा है, मेरा पद सिद्धपद है, मेरी परिणति शुद्ध वीतराग है यह बुद्धि नहीं जमती अर्थात् भेद विज्ञान को न पाकर वे कभी भी आत्मा के श्रद्धावान नहीं हो पाते। वे उन्मत पुरुष की नाई जगत में चेष्टा करते हुए अनंतकाल खोया करते हैं। इसलिए श्री अमितगति महाराज का तात्पर्य यह है कि अब तो तुम समझो, अब तो परपदार्थों को अपना मानना त्यागो तथा अपने मात्मीक शुद्ध गुणों को अपना मानो। जिससे निज आत्मा का अनुभव प्राप्त हो, यही तत्वभावना का फल है।
अनित्यपंचाशत् में श्री पश्मनंदि मुनि कहते हैं--- दुःखव्यालसमाकुल भव बन जाड्यांधकाराश्रितं। तस्तिन्दुर्गति पल्लिपाति कुपथे भ्राम्यति सर्वेगिनः ॥ तम्मध्ये गुरुवाक्यवोपममलमानप्रभामासुरं । प्राप्यालोक्य च सप्तयं सुखप्रदं याति प्रबुद्धो ध्रुवं ॥१७॥
भावार्थ-यह संसाररूपी जन दुःखरूपी अजगरों (सों) से भरा हुआ है, यहां अज्ञानरूपी अंधकार फैला हुआ है। इस वन में दुर्गतिरूपी भीलों की तरफ ले जाने वाला खोटा मार्ग है। ऐसे वन में सर्व ही संसारो प्राणी भ्रमण किया करते हैं। परन्तु चतुर मनुष्य इसी वन के मध्य में गुरु के वचनरूपी दीपक को जो निर्मल ज्ञान के प्रकाश से चमक रहा है, पाकरके सच्चे मार्ग को ढूंढकर अधिनाशी आनन्दभई पद को पहुंच जाता है।