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। गोम्मटसार जीवकाश तिनविर्षे जीवादिक जो प्रमाण करनेयोग्य समस्त वस्तु, ताकौं उद्धार करि गोम्मटसार द्वितीय नाम पंजगह नामा दिने बिरता सौ रचना संता तिस ग्रंथ को श्रादि ही विर्षे निर्विघ्न , शास्त्र की संपूर्णता होने के अथि, वा नास्तिक वादी का परिहार के अथि, वा शिष्टाचार का पालने के अथि, वा उपकार की स्मरणे के अथि विशिष्ट जो अपना इष्ट देव का विशेष, लाहि नमस्कार कर हैं।
भावार्थ - इहां औसा जानना:- सिंहनन्दितामा मुनि का शिष्य, जो गंगवंशी राजमल्ल नामा महाराजा, ताका मंत्री जो चामुंडराय राजा, तिहने नेमीचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती प्रति असा प्रश्न कीया - .:. : .
. ... . : जो सूक्ष्म अपर्याप्त पृथ्वीकायादिक इकतालीस जीयपदनि विर्षे नामकर्म के सत्त्वनि का निरूपण कैसे है ? सो कही। .
तहां इस प्रश्न के निमित्त को पाय अनेक जीवनि के संबोधने के अथि जीवस्थानादिक छह अधिकार जामैं पाइए, जैसा महाकर्म प्रकृति प्राभृत है नाम जाका, असा अग्रायणीय पूर्व का पांचवां वस्तु, अथवा यति भूतबलि आचार्यकृत १ धवल शास्त्र, ताका अनुसार लेई गोम्मटसार अर याहीका द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रंथ, ताके करने का प्रारंभ किया। तहां प्रथम अपने इष्टदेव कौं नमस्कार कर हैं। ताके निर्विघ्नपने शास्त्र की समाप्तता होने कू श्रादि देकरि च्यारि प्रयोजन कहे । अब इनकौं दृढ़ कर हैं।
.. इही तर्क - जो इष्टदेव, ताकौं नमस्कार करने करि निर्विघ्नपर्ने शास्त्र की समाप्तता कहा हो है ?, .. ... तहां कहिए है - जो ऐसी आशंका न करनी, जात शास्त्र का असा वचन है
...... "विघ्नौधाः प्रलयं यांति शाकिनीभूतपन्नगाः ।
. विषं निविषतां याति. स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥" याका अर्थ - जो जिनेश्वरदेव कौं स्तवता थका विघ्न के जु समूह, ते नाश कौं प्राप्त हो हैं । बहुरि शाकिनी, भूत, सादिक, ते. नाश को प्राप्त हो हैं । बहुरि विष है, सो विषरहितपना कौं प्राप्त हो है । सो असा वचनः थको शंकात करता । बहुरि जैसे प्रायश्चित्त का आचरण करि व्रतादिक का दोष नष्ट हो है, बहुरि जैसे .... यति खुपश्चाचार्य ने गुणपरामायं विरचिल कषायपाहु-के सूत्रों पर चूणिसूत्र लिखे हैं । भूदलली आचार्य ने षट्खण्टागम सूत्रों की रचना की है और प्राचार्य वीरसेन ने पदसण्डागम सूत्रों, की 'धवला' दीका लिखी है ...