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* प्रथम सर्ग: बस, यही निश्चयकर वे दोनों जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाते हुए पासवाले गांवमें आये और वहाँके बड़े-बूड़ोंको इकट्ठा कर पूछा,“सज्जनो! हमें इस बातका बड़ा सन्देह हो रहा है कि अधर्मकी जय होती है या धर्मकी। आप लोग इसका सव सच निर्णय करके बतलाये।" यह अनोखा सवाल सुन वे सबके सब बोल उठे,—“भाई ! आजकल तो अधर्मकी ही जय दिखाई देती है।" ___ यह सुन, दोनों फिर रास्ते पर चले आये। अबके उस दुष्ट सेवकने कुमारकी हँसी उड़ाते हुए कहा,-"कहिये सत्यवादी जी! धार्मिक शिरोमणि जी! अब क्या राय है ? अब अपनी सारी चीजें मुझे देकर मेरे दास बनजाइये।"
कुमार अपने मनमें विचार करने लगे,–“राज्य, लक्ष्मी और प्राण भले ही चले जायें; पर जो बात मेरे मुंहसे निकली है, वह तो पूरी होकर ही रहेगी। सुख-दुःख कोई किसीको नहीं देता। सब अपने कर्मोंके सूत्र में बंधे हैं।” यही सोचकर उन्होंने कहा,“अच्छा, तुम मेरी पोशाक और यह घोड़ा ले लो, अब मैं तुम्हारा । दास बनता हूँ।" ___ अब तो वह सेवक घोड़ेपर सवार हो ठाठके साथ चलने लगा। अपने घोड़ेके पीछे-पीछे दौड़ते हुए थके-मांद कुमारको देखकर मन-ही-मन खुश होता हुआ वह दुष्ट नौकर बोला,“कुमार ! धर्म-धर्म चिल्लाने और धर्मका पल्ला पकड़नेसे ही तुम्हारी यह हालत हुई। इसलिये अब भी धर्मका पक्षपात छोड़ो और अपनी यह सब चीजें वापिस ले लो।" यह सुन कुमारने