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* पार्श्वनाथ चरित्र #
यह सुन सज्जनने कहा, “देव ! इसमें शक नहीं कि मैं मूर्ख हूँ, पर यह तो कहिये, धर्म किसे कहते हैं ?”
कुमारने कहा, “रे दुष्ट सुन, – सत्य वचन, गुरु-भक्ति, यथाशक्ति दान, दया और इन्द्रिय दमन येही तो धर्म हैं और इनसे विपरीत जो कुछ है वही दुःखदायी अधर्म है ।"
सज्जनने कहा, – “समय पाकर कभी-कभी अधर्म भी सुखदायी हो जाता है और धर्मसे ही दुःख होता है । अगर ऐसा न होता, तो आप ऐसे धर्मात्माकी ऐसी हालत ही क्यों होती ? इसलिये मुझे तो ऐसा मालूम होता हैं कि यह युग ही अधर्मका है। आजकल तो चोरी चकारी करके धन उपार्जन करनाही ठीक है ।”
यह सुन कुमारने कहा, “अरे पापो ! ऐसी नहीं सुनने लायक बातें न बोल । धर्मकी सदा जय होती है । धर्म करते हुए भी यदि कुछ कष्ट हो तो उसे पूर्व जन्मके कर्मोका विपाक समझना चाहिये । जो अन्यायसे धन पैदा करता है, वह अपने घरमें आपही आग लगाता है ।"
फिर उस अधम सेवकने कहा – “ इस तरह अरण्यरोदन करनेसे तो कोई लाभ नहीं है । सामने वाले गाममें चलिये । वहाँके लोगोंसे पूछिये । देखिये, वे क्या कहते हैं। यदि वे लोग कह दें कि अधर्मकी जय होती है, तो आप क्या करेंगे ?” कुमारने कहा, – “यदि वे ऐसा कह देंगे, तो मैं घोड़ा आदि अपनी सारी चीजें तुम्हें दे दूँगा और जीवन भरके लिये तुम्हारा दास हो जाऊँगा ।”