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________________ १२ * पार्श्वनाथ चरित्र # यह सुन सज्जनने कहा, “देव ! इसमें शक नहीं कि मैं मूर्ख हूँ, पर यह तो कहिये, धर्म किसे कहते हैं ?” कुमारने कहा, “रे दुष्ट सुन, – सत्य वचन, गुरु-भक्ति, यथाशक्ति दान, दया और इन्द्रिय दमन येही तो धर्म हैं और इनसे विपरीत जो कुछ है वही दुःखदायी अधर्म है ।" सज्जनने कहा, – “समय पाकर कभी-कभी अधर्म भी सुखदायी हो जाता है और धर्मसे ही दुःख होता है । अगर ऐसा न होता, तो आप ऐसे धर्मात्माकी ऐसी हालत ही क्यों होती ? इसलिये मुझे तो ऐसा मालूम होता हैं कि यह युग ही अधर्मका है। आजकल तो चोरी चकारी करके धन उपार्जन करनाही ठीक है ।” यह सुन कुमारने कहा, “अरे पापो ! ऐसी नहीं सुनने लायक बातें न बोल । धर्मकी सदा जय होती है । धर्म करते हुए भी यदि कुछ कष्ट हो तो उसे पूर्व जन्मके कर्मोका विपाक समझना चाहिये । जो अन्यायसे धन पैदा करता है, वह अपने घरमें आपही आग लगाता है ।" फिर उस अधम सेवकने कहा – “ इस तरह अरण्यरोदन करनेसे तो कोई लाभ नहीं है । सामने वाले गाममें चलिये । वहाँके लोगोंसे पूछिये । देखिये, वे क्या कहते हैं। यदि वे लोग कह दें कि अधर्मकी जय होती है, तो आप क्या करेंगे ?” कुमारने कहा, – “यदि वे ऐसा कह देंगे, तो मैं घोड़ा आदि अपनी सारी चीजें तुम्हें दे दूँगा और जीवन भरके लिये तुम्हारा दास हो जाऊँगा ।”
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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