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आ सकती हैं कि थोड़ी-सी प्रतिकूलता में जिसकी समता वह आकाशे को चूमती थी : .. उसे भी विषमता की नागिन सूंघ सकती है"
और, वह राही गुम-राह हो सकता है; उसके मुख से फिर गम-आह निकल सकती है। ऐसी स्थिति में बोधि की चिड़िया वह फुर्र कर क्यों न जाएगी ? क्रोध की बुढ़िया वह गुर्र कर क्यों न जागेगी? साधना-स्खलित जीवन में
अनर्थ के सिवा और क्या घटेगा ? इसलिए प्रतिकार की पारणा छोड़नी होगी, बेटा ! अतिचार की धारणा तोड़नी होगी, बेटा ! अन्यथा, कालान्तर में निश्चित ये दोनों आस्था की आराधना में विराधना ही सिद्ध होंगी !
एक बात और कहनी है
12 :: मूक माटी