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हाँ ! हाँ !! ""इसे खेल नहीं समझना यह सुदीर्घ-कालीन परिश्रम का फल है, बेटा ! . ... . . ... भले ही इह .
आस्था हो स्थाई हो दृढ़ा, दृढ़तरा भी तथापि प्राथमिक दशा में साधना के क्षेत्र में स्खलन की सम्भावना पूरी बनी रहती है, बेटा ! स्वस्थ-प्रौढ पुरुष भी क्यों न हो काई-लगी पाषाण पर
पद फिसलता ही है ! इतना ही नहीं, निरन्तर अभ्यास के बाद भी स्खलन सम्भव है; प्रतिदिन-बरसों से रोटी बनाता-खाता आया है तथापि वह पाक-शास्त्री की पहली रोटी करड़ी क्यों बनती, बेटा इसीलिए सुनो ! आयास से इरना नहीं आलस्य करना नहीं ।
कभी कभी साधना के समय ऐसी भी घाटियाँ
मूक माटी :: ।।