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( ११ ) अन्तराय के हेतु रूप (कर्मों का) बन्ध-यह आठ (मूल) प्रकृतियों का बन्ध है ।
टिप्पण--१. जीव के विशेष बोध को ज्ञान और सामान्य बोध को दर्शन कहते हैं । इन गणों के आवरण करनेवाले कर्म को क्रमशः ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं । २. वेदना=सुखदुःख की अनुभूति, मोह = विकृति में रमणता और आयु =भव के अनुभव में हेतु रूप कर्मों को क्रमशः वेदनीय, मोहनीय और आयुष्य कर्म कहा गया है । ३. नाम = जीव की गति, जाति, आकृति आदि में हेतु रूप, गोत्र पूजनीयता-अपूजनीयता में हेतु रूप और विघ्नअन्तराय=शक्ति आदि में बाधक रूप कर्मों को क्रमशः नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म कहते हैं । ४. इन आठ कर्मों को मूल प्रकृति और इनके प्रभेदों को उत्तर प्रकृति कहते हैं । ५. आठ प्रकृतियों के प्रमुख रूप से दो विभाग हैं-घाती और अघाती । घाती प्रकृतियाँ जीव के मूल गुणों की घात करती हैं । वे हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय । अघाती प्रकृतियाँ जीव के गुणों की घात नहीं करती है; किन्तु उसे भव में रोककर रखती हैं । इसलिये उन्हें भवोपग्राही कर्म भी कहते हैं । वे हैं-वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र । ६. इस गाथा में इन कर्म-प्रकृतियों के दो, तीन, दो और एक ऐसे दलों में विभाजित किया है । क्या इसके पीछे कुछ हेतु हैं ? –नहीं भी है और भी । केवल वर्णन सुविधा की दष्टि से ये विभाग है-इस दृष्टि से कोई हेतु नहीं है। किन्तु वर्णन की सुविधा की दृष्टि से नाम गोयंतरायाणं-यह पद भी रखा जा सकता था, यह पद न रखकर 'नामगोयाण विग्घस्स' यह पद रखा है, इसलिये इस विभाजीकरण में कुछ हेतु है । यथा-पहले के दो कर्म आवरण रूप हैं, जिसका उदय होने पर ज्ञानगुण और दर्शनगुण आच्छादित हो जाते हैं, जो कि जीव के असाधारण गुण हैं । दूसरे दल के तीन कर्म अनुभव रूप में उदय में आते हैं । वेदनीय कर्म के उदय