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की स्निग्धता उससे जुड़कर लौ (ज्योति) को स्थायित्व प्रदान करती है । वैसे ही शुभ कर्म का ग्राहक तो योग ही होता है, किन्तु उसे विशेष स्थिति प्रदान करनेवाली कषाय की मन्दता होती है । जैसे तैल से दीपक जलता है-यह कहना सत्य है, वैसे ही मन्द कषाय से शुभ कर्म का बन्ध होता है—यह कथन भी सत्य है। कषाय की राग-द्वेष रूप परिणति और कर्म-प्रकृतियों का बन्ध
कोहो माणो य दोसुत्ति, रागुत्ति नूम-लोहओ । तेहिं दोहिं तु बंधो हि, अट्ठहा ते वि गहा ॥१०॥
क्रोध और मान (मिलकर) द्वेष (रूप में परिणत होते) हैं और माया और लोभ से उत्पन्न हुआ राग है । उन दोनों बन्ध-हेतुओं से ही तो आठ प्रकार (के कर्मों) का बन्ध होता है और (प्रत्येक) कर्म भी अनेक प्रकार के होते हैं।
टिप्पण-१. आगमों में क्रोध और मान को द्वेष रूप तथा माया और लोभ को राग रूप माना है । द्वेष में दोनों ही भाव प्रतीत होते हैं-किञ्चित् जलन रूप क्रोध और द्वेष किये जानेवाले के प्रति तुच्छता के बोध रूप मान । राग में भी दिखावा-प्रदर्शन रूप माया और चाह रूप लोभ मिश्रित लगते हैं । २. रोचक भाव रूप राग और अरोचक भाव रूप द्वेष होता है । श्री जिनेश्वरदेव ने राग और द्वेष को आठों कर्मों का बन्ध कहा है । आठों कर्मों के भेद-प्रभेद अनेक हैं। आठ मूल प्रकृतियों का बन्ध
णाण-दंसण-छायण-वेय-मोहाउ-हेउणं । नाम-गोया विग्घस्स, बंधोऽट्ठ-पयडीण इ ॥११॥
ज्ञान-दर्शन के आच्छादक=आवरण करनेवाले, वेदन=सुखदुःख के अनुभव, मोह और आयु के हेतु रूप, नाम, गोत्र और