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( ८ )
कसाया जाव बंधो उ, तावेव संपराइओ । तावेव विडंबणाचेव, अप्पा भमेइ अप्पणा ॥८॥
जब तक कषाय हैं, तभी तक साम्परायिक बन्ध है और तभी तक विडम्बना है । ( इसप्रकार ) आत्मा अपने ( भावों) से ही भ्रमण कर रहा है ।
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टिप्पण -- १. आठ आत्मा में दो आत्माओं-योग और कषाय से जीव संसार में गोते खा रहा है । यों वीर्य - आत्मा भी इनमें सहायक बन जाता है । परन्तु जब आत्मा योग- परिणति से युक्त होता है, तब वह कर्मों को ग्रहण करता है और कषाय से कर्मों का विशेष बन्ध होता है । २. योग से प्रकृतिबन्ध = कर्मों के स्वभाव का विभाजन और प्रदेशबन्ध – कर्मों के दलों का आत्मा के साथ जोड़ होता है तथा कषाय से स्थितिबंध = कर्मों का आत्मा के साथ लगे रहने का काल-निर्धारण और अनुभागबंध = फल प्रदान करने की शक्ति का संचय होता है । ३. कषायों के अस्तित्व में ही साम्परायिकबन्धः आत्मा पर असर दिखानेवाले कर्मदलिकों का सञ्चय होता है अर्थात् योग के कषाय से अनुरञ्जित होने पर ही विविध स्वभाववाले कर्मों का बन्ध ( = प्रकृतिबन्ध ) समुदाय रूप से प्रभाव दिखाने की शक्ति से युक्त ( = साम्परायिकबन्ध ) होता है । किन्तु एक मात्र योग से ऐर्यापथिकबन्ध ( - असर नहीं दिखानेवाले कर्मों का मात्र स्पर्श) ही होता है । ४. साम्परायिक बन्ध के कारण ही जीव चारों गतियों में परिभ्रमण करता है । कभी आत्मा की विशिष्ट शक्तियों से सम्पन्न अहमिन्द्रादि बन जाता है तो कभी स्वतंत्र शरीर से भी रहित अनन्त - काय बन जाता है । इसप्रकार जीव विडंबित होता है । ५. कषाय के मलिन भाव चेतना के मलिन. अंश है । अतः आत्मा अपने भावों से ही भवभ्रमण करता है ।