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कषाय की द्विरूपता
सुहो मंदो कसाओत्ति, तिव्यो य असुहो सया । उभओ चेव जोएन्ति, जीवम्मि कम्म-पोग्गले ॥९॥
मंद कषाय सदा शुभ (भाव) है और तीव्र कषाय अशुभ (भाव) दोनों ही (कषाय) जीव में कर्म-पुद्गलों को जोड़ते हैं अर्थात् शुभ और अशुभ कर्म का बन्ध करते हैं।
टिप्पण--१. शुभभाव और अशुभभाव लहर रूप में आते-जाते रहते हैं । कषाय मात्र की दृष्टि से दो भागों में विभाजित हो जाता है-मंद और तीव्र । मंद कषाय शुभ भाव रूप और तीव्र कषाय अशुभ भाव रूप होता है । २. साम्परायिक बन्ध में दोनों प्रकार के भाव हेतु रूप बनते हैं । शुभ भाव शुभकर्म का और अशुभ भाव कर्म का हेतु होता है । इसप्रकार कषाय की ये दोनों ही अवस्थाएँ जीव के लिये कर्म-बन्ध के हेतु रूप ही बनती हैं । ३. कषाय परिणति आत्मा में ही होती है । अतः उसके निमित्त से तथा रूप कर्म आत्मप्रदेशों में संलग्न हो जाते हैं । ४. 'सया' शब्द से यह सूचित किया है कि तीव्र कषाय कभी भी शुभ भाव और मंद कषाय कभी भी अशुभ भाव नहीं होता । फिर भी कषाय अपने आप में अशुभ ही होता है । अतः सकषायदशा में कभी भी एकान्त शुभ रूप से कर्मबन्ध नहीं होता । ५. कषाय तीव्र हो या मंद, कषाय ही है । अतः वह बन्ध का हेतु है ही । ६. इस गाथा में मंद कषाय को शुभ कर्म का बन्ध हेतु बताकर बन्ध हेतु की एक रूपता का पक्ष दृढ़ किया है । कषाय की तरतमता से बन्ध में वैचित्र्य आता है । ७. 'शुभ कर्म का बन्ध हेतु कषाय कैसे हो सकता है ?'--इस शंका का समाधान यह है कि कषाय शुभ कर्म का बन्ध हेतु नहीं है, किन्तु उसका मन्दत्व शुभ है । इसलिये योग की शुभता का हनन नहीं कर पाता है, प्रत्युत उससे होनेवाले बन्ध को कुछ स्थायी बना देता है । जैसे दीपक में लौ की ग्राहिका तो वर्तिका ही होती है । किन्तु तैल