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( ७ ) उपयोग-शून्यता । कषाय =आवेशात्मक भाव और योग=मन आदि की क्रिया । २. 'तहा' शब्द का अर्थ है 'उसी प्रकार' अर्थात् प्रमाद और कषाय विरति=अविरति के नियंत्रण को तोड़ देते हैं अथवा योग को अशुभ बना देते हैं । ३. मिथ्यात्व कषाय में और अविरति और प्रमाद योग में गर्भित हो जाते हैं । इसप्रकार प्रमुख बन्ध हेतु ये दो ही शेष रहते हैं-कषाय और योग।
वीयकसाय-जोगीणं, बंधो अबंधगो हि य । तम्हा कम्माण बंधस्स, कसाओ मेत्त हेउ ति ॥७॥
और कषाय से रहित योग-प्रवृत्तिवालों का बन्ध निश्चय ही अबन्धक=बन्ध नहीं करनेवाला है । इस कारण कर्मों के बन्ध का हेतु एक मात्र कषाय ही है ।
टिप्पण-१. केवल योगों से कर्मों का मात्र ग्रहण ही होता है अर्थात् जब जीव के कषाय से रहित परिणाम (वीतरागत्व) होते हैं, तब द्विसमय की स्थितिवाले एक मात्र शातावेदनीय कर्म का ही बन्ध होता है और वह बन्ध आत्मा पर किञ्चित मात्र भी प्रभाव नहीं दिखाता है । इसलिये वह अबंधरूप ही है । २. 'जोगीणं' बहुवचन से त्रैकालिक वीतरागों को ग्रहण कर लेना चाहिये अर्थात् तीनों काल में किसी भी वीतराग के दो समय से अधिक स्थितिवाले कर्म का बन्ध नहीं होता, चाहे वे उप शान्त कषायी हो, चाहे क्षीणकषायी। ३. 'कम्माणं' के बहुवचन से यह आशय है कि अधिकांश कर्म-प्रकृतियों का बन्ध कषायोदय में ही होता है। सकषायी जीव के तीन बन्ध स्थान हैं-छह कर्मों (=आयुष्य और मोहनीय के सिवाय) का बन्ध, सात कर्मों का (आयुष्य को छोड़कर) बंध और आठों कर्मों का बंध ।