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( ५ ) उस भाव को भी उसके पीछे समझना चाहिये । २. कष अर्थात् संसार और आय अर्थात् लाभ । 'जिन भावों से संसार में परिभ्रमण रूप कर्मों का लाभ होता है'-उन भावों को कषाय कहते हैं । ३. लोक =जिस आकाश प्रदेश में धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व है, वह आकाश-प्रदेश । एकेन्द्रिय रूप में जीव सारे लोक में जन्ममरण करता है । एक प्रदेश भी जीव के द्वारा अस्पृष्ट नहीं रहता है । ४. भव : एक गति से दूसरी गति में जाना-एक जन्म से दूसरे जन्म को ग्रहण करना । जीव अनादिकाल से भव-भ्रमण कर रहा है । ५. गुण=शब्द आदि पाँच विषय । इन्द्रियाँ अनादि से इन विषयों को ग्रहण करती आ रही है । ६. दुःख=अशाता का वेदन । अनन्तकाल से जीव दुःख का वेदन कर रहा है। अशुभ कर्मों के उदय मात्र से होने वाली जीव की वेदना=अनुभूति दुःख है । ७. इन चारों के मूल में कषाय रहता है । क्योंकि लोक और भव में परिभ्रमण और दुःखों का वेदन पूर्वबद्ध कर्मों के उदय से होता है और विषय-प्रवृत्ति तो साक्षात् मोह के कारण ही होती है । कर्मबन्ध का हेतु और मोह का मूल कषाय ही तो है । ८. 'कस' शब्द के अनेक अर्थ हैं । कुछ अर्थों का इस गाथा में संग्रह है। कषाय के भेद
चेयण्ण-घायगाजे, कसाय-भावा जिणेहि णिहिट्ठा । चत्तारि ते वि कोहो, माणो माया तहा लोहो ॥५॥
जिनेश्वरदेवों ने जिन कषायों को चैतन्य-घातक कहा है, वे (कषाय) चार हैं; यथा-क्रोध, मान, माया और लोभ।
टिप्पण-१. मूलतः कषाय की समस्त अवस्थाएँ आवेशात्मक होती हैं । अतः वे चेतना की घात करते हैं । २. 'जिणेहि' इस बहुवचन शब्द से तीनों काल के तीर्थंकरों का संग्रह होता है अर्थात् कषाय