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( ६ )
'चैतन्य - घातक है' - यह त्रैकालिक सत्य है । क्योंकि तीनों काल में 'जिन' कषायों के क्षय करने से ही होते हैं अर्थात् विशुद्ध चैतन्य कषायों के अभाव से ही होता है । अत: यह बात सिद्ध हो जाती है कि तीनों काल में सचमुच ही कषाय चेतना को मूर्च्छित करनेवाला है-चैतन्य भावों का घातक है । ३. कषाय की दो अवस्थाएँ - बद्ध और उदय रूप । कषाय बद्धकर्म के रूप में आत्म- प्रदेशों से जुड़े रहते हैं । तब उनका जोर चेतना पर नहीं होता है । परन्तु जब वे बद्धकर्म उदय में आते हैं, तब चेतना उनसे अनुरंजित हो जाती हैं । वे ही कषाय-भाव हैं । ४. जीव कषायभाव का मात्र भोक्ता ही नहीं होता है, कर्ता भी होता है । अतः वह पुनः कर्म-बंध का हेतु बनता है । क्योंकि उससे आत्मा में विकृति होती है और आत्मभान विलीन हो जाता है । ५. वह कषायभाव चार प्रकार का होता है -- (अ) क्रोध = आक्रोश, उफान, विक्षोभ, असहिष्णुता आदि रूप भाव, (आ) उच्चता, नीचता, हीनता, दीनता आदि रूपभाव, दुराव- छिपाव, दिखावट - बनावट, छल-कपट, वक्रता आदि रूप भाव और (ई) लोभ = लालसा, लिप्सा, इच्छा, चाह, कामना, अभिलाषा आदि रूपभाव । ६. ते वि' में वि शब्द से यह सूचित होता है कि भाव रूप (उदय) में भी कर्म रूप (बंध) में भी कषाय चार चार प्रकार का है । कषाय बन्ध का हेतु है—
मान = तनाव, (इ) माया =
बंधस्स पंच हेऊति, मिच्छत्ताविरई तहा ।
माओ य कसाओ य, जोगा दो पच्छिमा मुहा ॥ ६ ॥
( कर्म - ) बन्ध के पाँच हेतु हैं—- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । (इन पाँचों में) पिछले दो अर्थात् कषाय और योग - मुख्य (बंध - हेतु ) हैं ।
टिप्पण - १. मिथ्यात्व – मिथ्या श्रद्धा 1 अविरति : पापप्रवाह को नहीं रोकना । प्रमाद = विषय आदि में प्रवृत्ति, असावधानी,