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वेयावच्चं कसाएणं, होई खलु निरत्थयं । तम्हा कसाय-चाओ उ, तप्पच्छा भद्द ! ठाविओ ॥ ३ ॥
हे भद्र ! कषाय के द्वारा वैयावृत्य निश्चय ही निरर्थक हो जाती है । इसलिए ही तो उसके बाद 'कषाय-त्याग' ( नामक इस बोल) का स्थापन किया गया है ।
टिप्पण – १. कोई साधक वैयावृत्य परम उल्लास भाव से करते हैं । परन्तु सेव्य जनों पर जरा-जरा-सी बात पर क्रोध करते हैं । सेवा पर अभिमान करते हैं । ईर्ष्या, द्वेष आदि से परे नहीं हो पाते हैं । वक्र बोलते हैं । छल- लोभ भी बात-बात में आ जाता है । अतः उनकी वैयावृत्य निष्प्रभाव हो जाती है । २. वैयावृत्य में तो कषायत्याग की परम आवश्यकता है । लौकिक सेवाभावी चिकित्सक आदि रुग्णों की गालियाँ आदि हँसते हुए सहन करते हैं । फिर आत्म-कल्याण के इच्छुक को तो कितनी क्षमा, विनम्रता आदि रखनी चाहिये । ३. वैयावृत्यी में कषाय त्याग या कषाय की मन्दता से 'सोने में 'सुगन्ध' की उक्ति चरितार्थ होती है । ४. 'भद्र' संबोधन कषाय की मंदता और उसके क्षय का प्रेरक और सूचक है । कषाय की परिभाषा -
जेण संसरए जीवो, लोए भवे गुणे दुहे । संसार-भाव- लाहत्तो, सो कसाओत्ति वच्च ॥४॥
जिस (भाव) से जीव लोक, भव, कामगुण और दुःख में संसरणगमन करता है, संसारभाव का लाभ प्रदान करने के कारण उस भाव को कषाय कहते हैं ।
टिप्पण -- १. लोक आदि में संसरण करना - यह 'संसार' शब्द का आशय है । परन्तु जिस भाव से संसार में परिभ्रमण होता है,