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अष्टाविंशतितमं पर्व
अथान्येद्युदिनारम्भे कृतप्राभातिकक्रियः । प्रयाणमकरोच्चक्री चक्ररत्नान मार्गतः ॥२॥ अलङध्यं चक्रमाक्रान्तपरचक्र पराक्रमम् । दण्डश्च दण्डितारातिः द्वयमस्य पुरोऽभवत् ॥२॥ रक्ष्यं देवसहस्रेण चक्र दण्डश्च तादृशः । जयाङगमिदमेवास्य द्वयं शेषः परिच्छदः ॥३॥ विजयार्थ प्रतिस्पधिवणिं यागहस्तिनम् । प्रतस्थे प्रभुरारुह्य नाम्ना विजयपर्वतम् ॥४॥ प्राची दिशमयो जेतुम् प्रापयोधेस्तमुद्यतम् । नूनं स्तम्बरमव्याजाद् ऊहे. विजयपर्वतः ॥५॥ सुरेभं० शरदभाभम् प्रारूढो जयकुञ्जरम् । स रेजे दीप्तमुकुटः सुरेभंर सुरराडिव ॥६॥ सितातपत्रमस्योच्चः विवृतं श्रियमादधे। यशसां प्रसवागारमिव तद्व्याजजृम्भितम् ॥७॥ लक्ष्मीप्रहासविशदा चामराली समन्ततः । व्यधूयतास्य विध्वस्ततापा ज्योत्स्नेव शारवी ॥८॥ जयद्विरदमारूढो ज्वलज्जैत्रास्त्रभासुरः । जयलक्ष्मीकटाक्षाणाम् अगमत् स शरव्यताम् ॥६॥ महामुकुटबद्धानां सहस्राणि समन्ततः । तमनुप्रचलन्ति स्म सुराधिपमिवामराः॥१०॥
अथानन्तर-दूसरे दिन सवेरा होते ही जो प्रातःकालके समय करने योग्य समस्त क्रियाएं कर चुके हैं ऐसे चक्रवर्ती भरतने चक्ररत्नके पीछे पीछे प्रस्थान किया ॥१॥ शत्रु-समूह के पराक्रमको नष्ट करनेवाला तथा स्वयं दूसरोंके द्वारा उल्लंघन न करने योग्य चक्ररत्न और शत्रुओंको दण्डित करनेवाला दण्डरत्न, ये दोनों ही रत्न चक्रवर्तीकी सेनाके आगे आगे रहते थे ॥२॥ चक्ररत्न एक हजार देवोंके द्वारा रक्षित था और दण्डरत्न भी इतने ही देवोंके द्वारा रक्षित था। वास्तव में चक्रवर्तीकी विजयके कारण ये दो ही थे, शेष सामग्री तो केवल शोभा के लिये थी ॥३॥ अबकी बार चक्रवर्तीने, जिसका शरीर विजयाध पर्वतके साथ स्पर्धा कर रहा है ऐसे विजयपर्वत नामके पूज्य हाथीपर सवार होकर प्रस्थान किया था ॥४॥ उस समय ऐसा मालूम होता था मानो समुद्र पर्यन्त पूर्व दिशाको जीतनेके लिये उद्यत हुए महाराज भरतको उस हाथीके छलसे विजयार्ध पर्वत ही धारण कर रहा हो ।।५।। जिस प्रकार देदीप्यमान मुकुटको धारण करनेवाला इन्द्र ऐरावत हाथीपर चढ़ा हुआ सुशोभित होता है उसी प्रकार देदीप्यमान मुकुटको धारण करनेवाला भरत शरद् ऋतुके बादलोंके समान सफेद और देवों के द्वारा दिये हुए उस विजयपर्वत हाथीपर चढ़ा हुआ सुशोभित हो रहा था ॥६।। भरतेश्वर के ऊपर लगा हुआ सफेद छत्र ऐसी शोभा धारण कर रहा था मानो छत्रके बहानेसे यशकी उत्पत्ति का स्थान ही हो ॥७॥ लक्ष्मीके हास्यके समान निर्मल और शरदऋतुकी चांदनीके समान संतापको नष्ट करने वाली चमरोंकी पंक्ति महाराज भरतके चारों ओर ढुलाई जा रही थी ॥८॥ विजय नामके हाथी पर आरूढ़ हुए और विजय प्राप्त करानेवाले प्रकाशमान अस्त्रोंसे देदीप्यमान होनेवाले भरतेश्वर जयलक्ष्मीके कटाक्षोंके लक्ष्य बन रहे थे। भावार्थ-उनकी ओर विजयलक्ष्मी देख रही थी॥९॥ जिस प्रकार देव लोग इन्द्रके पीछे पीछे चलते हैं उसी प्रकार हजारों मुकुटबद्ध बड़े बड़े राजा लोग चारों ओर भरत महाराजके पीछे पीछे चल रहे थे ॥१०॥
१ अनुगमनात् । २ अरिनिकर । परराष्ट्र वा। ३ चक्रिणः । ४ परिकरः । ५ विजयार्धगिरिणा स्पर्धमानदेहम् । ६ पूजोपतगजम् । ७नन ल०। ८ धरति स्म । विजयागिरिः । १० सुशब्दम् । ११ ऐरावतम् । १२ क्षत्रव्याज । १३ लक्ष्यताम् । 'लक्षं लक्ष्यं शरव्यं च' इत्यभिधानात् । १४ अपरिमिता इत्यर्थः ।
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