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महापुराणम्
राज्ञामावसथैषु शान्तजनताक्षोभेषु पीताम्भसाम्
अश्वानां पटमण्डपेषु निवहे स्वरं तृणग्रासिनि । गङगातीरसरोवगाहिनि वनेष्वालानिते हास्तिकें
जिष्णोस्तत्कंटकं चिरादिव कृतावासं तदा लक्ष्यते ।। १५१ । तत्रासीनमुपायनैः कुलधनंः कन्याप्रदानादिभिः
प्राच्या मण्डलभूभुजः समुचितंराराधयन् साधनैः । संरुद्धाः प्रविहाय मानमपरं प्राणशिषुश्चक्रिण
दूरादानतमौलयो जिनमिव प्राज्योदयं नाकिनः ॥ १५२ ॥ इत्यांच भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलेक्षण महापुराणसङ्ग्रहे भरतराजविजयप्रयाणवर्णनं नाम सप्तविंशतितमं पर्व ॥
।। १५० ।। जिस समय राजाओं के तम्बुओंमें मनुष्यों की भीड़का क्षोभ शान्त हो गया था, घोड़ों के समूह जल पीकर कपड़े के बने हुए मण्डपों में अपने इच्छानुसार घास खाने लगे थे, और हाथियों के समूह गङ्गा नदी के किनारे के सरोवरोंमें अवगाहन कराकर—स्नान कराकर वनों में बांध दिये गये थे उस समय विजयी महाराज भरतकी वह सेना ऐसी जान पड़ती थी मानो चिर कालसे ही वहां रह रही हो ।। १५१ ।। जिस प्रकार श्रेष्ठ महिमाको धारण करनेवाले तथा समवसरण सभा में विराजमान जिनेन्द्रदेवकी देव लोग आराधना करते हैं उसी प्रकार श्रेष्ठ वैभवको धारण करनेवाले तथा उस मण्डपमें बैठे हुए महाराज भरतको पूर्वदिशाके राजाओंने अपनी कुल-परम्परासे आया हुआ धन भेंटमें देकर, कन्याएं प्रदान कर तथा और भी अनेक योग्य वस्तुएं देकर उनकी आराधना सेवा की थी। इसी प्रकार उनकी सेनाके द्वारा रोके हुए अन्य कितने ही राजाओंने अहंकार छोड़कर दूरसे ही मस्तक झुकाकर चक्रवर्तीके लिये प्रणाम किया था ।। १५२ ।।
इस प्रकार भगवज्जिनसेनाचार्य-प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण श्रीमहापुराणसंग्रहके भाषानुवादमें भरतराजका राजाओंकी विजयके लिये प्रयाण करना इस बातका वर्णन करनेवाला सत्ताईसवां पर्व समाप्त हुआ ।
१ सेनाभिः । २ परिवृताः । ३ नमस्कुर्वन्ति स्म । ४ प्रचुराभ्युदयम् ।
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