Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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३८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
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साथ ही मुझे समधिन के मीठे रिश्ते का लाभ होगा. वे वचन देकर घर के सब सदस्यों से अपनत्व सम्बन्ध स्थापित करेंगे. पिता उल्लसित हो रहे थे कि मेरे बेटे को जीवनसंगिनी मिलने वाली है. मुझे समधी मिलेंगे. परिजन मोद मना रहे थे कि आज के बाद आसकरण जी के विवाह की सीमारेखा अंकित होने वाली है. इस प्रकार सब की तैयारी व प्रसन्नता आसकरण जी पर आधारित हो चुकी थी. आसकरण जी के मन के हिमालय से वैराग्य की गंगा अवतरित होकर हृदय में समाहित हो चली थी. सबकी आशा के सुनहरे तार कच्चे धागों की तरह टूट गये. आसकरणजी के वैराग्य का स्वप्न साकार हुआ. उन्होंने हाड़मांस की पुतली के बदले विरक्ति के साथ सगपन किया. माता-पिता व अन्य जनों के स्वप्न भंग हो गये. कालांतर में मुनि पद की विधवत् दीक्षा ग्रहण की. जैनागमों का गहरा अध्ययन किया. तप-त्याग, संयम का विमल मन से ५२ वर्ष से भी कुछ अधिक समय तक सम्यक् परिपालन किया. इनका कृतित्वपक्ष भी आचार्य श्रीरायचन्द्रजी म० की तरह अत्यंत प्राणवान् था. मारवाड़ के प्राचीन ज्ञानागारों में आपके द्वारा रचित विभिन्न विषय के उत्प्रेरक पद आज तक उपलब्ध होते जा रहे हैं. २० विहरमान, ११ गणधर, २४ तीर्थंकर व १६ सतियों की स्तुति में स्तुतिपरक पद तो रचे ही, इनके अलावा अन्य तात्त्विक विषयों पर भी पद्यरचना की. इनके अब तक उपलब्ध पद्यों का 'आसकरणपदावली' के नाम से एक विशाल संग्रह किया जा चुका है जो निकट भविष्य में ही प्रकाश में आने वाला है. आगे अन्वेषण चालू है. १० भव्यात्माओं को मुनिजीवन की दीक्षा प्रदान की. सम्पूर्ण जीवन ७० वर्ष का था, १८८२ की कार्तिक कृष्णा पंचमी को देहोत्सर्ग हुआ.
प्राचार्य श्रीसबलदासजी
आचार्य श्रीआसकरण जी म० ने परम्परा से चली आ रही युवाचार्य-पद की पद्धति का सम्यक् निर्वाह करते हुये श्रीसबलदास जी म० को सं० १८८१ की चैत्र शुक्ला पूर्णिमा की प्रभात-वेला में युवाचार्य-पद प्रदान किया. सं० १९८२ की माघशुक्ला त्रयोदशी को जोधपुर में आचार्य-पद प्राप्त हुआ. संघव्यवस्था का दायित्व आपके कंधों पर आ गया. आचार्य श्रीसबलदासजी म० का जन्म सं० १८२८ भाद्रपद शुक्ला द्वादशी को पोकरण नगर में हुआ था. माता सुन्दर देवी और पिता आनन्दराम जी लुणिया थे. इन्होंने मार्गशीर्ष शुक्ला तृतीया को बुचकला ग्राम में आचार्य श्रीरायचन्द्रजी के द्वारा सं० १८४२ में मुनिदीक्षा धारण की थी. तीन दशक से कुछ अधिक समय तक मुनिजीवन की कठोर साधना हो चूकने पर आचार्य की दृष्टि में आपने युवाचार्य-पद की योग्यता प्राप्त की. अर्धशती से कुछ अधिक समय तक समग्र मुनि जीवन व्यतीत किया. तीन शिष्यों को स्वयं दीक्षा प्रदान की. आप अपने समय के बहुत अच्छे कवि थे. आज तक के आपके प्राप्त पदों के आधार पर निस्संकोच कहा जा सकता है कि आपको छन्दःशास्त्र का ठोस ज्ञान था. पूर्ववर्ती आचार्यों की तुलना में आपका पद्य साहित्य यद्यपि स्वल्प ही उपलब्ध हुआ है परन्तु अन्वेषण की महती आवश्यकता है. लेखक इस दिशा में प्रयत्नशील है. इन का देहोत्सर्ग सं० १९०३ में सोजत (शुद्ध दंतीपुर) नगर में वैशाख शुक्ला नवमी को हुआ था.
प्राचार्य श्रीहीराचन्द्र जी
आचार्य श्रीसबलदासजी म० युवाचार्य-पद पर आसीन रहे थे. परन्तु उनके पश्चात् किसी आचार्य को पहले युवाचार्यपद प्रदान किया गया हो, ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता. श्री हीराचन्द्र जी म० आषाढ़ शुक्ला नवमी सं० १९०३ में आचार्य पद पर जोधपुर में प्रतिष्ठित हुए. आचार्य श्रीहीराचन्द्र जी का जन्म सं० १८५४ भाद्रपद शुक्ला पंचमी को विराईग्राम (राज.) में हुआ था. माता गुमाना देवी और पिता नरसिंह जी कांकरिया थे. दसवें वर्ष में वैराग्य का उद्गम हो गया था. आचार्य श्रीआसकरणजी के द्वारा
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