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उ.
प्र.154 प्रस्तुत भाष्य में अनुबन्ध चतुष्टय में से किसका कथन नही किया
गया है ? "अधिकारी" पदार्थ का कथन नही किया गया है उसे निम्न बिन्दुओं के आधार पर अध्याहार से समझना चाहिए। जिस ग्रंथ का प्रारंभ सर्वज्ञ परमात्मा को वंदन करके किया गया है। जो ग्रंथ आगम, वृत्ति, भाष्य व चूणि अर्थात् आप्त से सम्बन्धित है, स्वमति से रचित नही है । जिस ग्रंथ का विषय चैत्यवंदन है। जिस ग्रंथ की रचना का अनन्तर व परम्पर प्रयोजन कर्म निर्जरा और मोक्ष की प्राप्ति है तब इस भाष्य त्रयम् का अधिकारी सम्यग्दर्शी ही होगा मिथ्यात्वी कैसे हो सकता है ? जिसमें सम्यग्दर्शन होगा, वही आगम, वृत्ति, भाष्यादि पर श्रद्धा करेगा। जो सम्यग्दर्शी होगा, वही चैत्यवंदन विषय का पाठन करेगा और परमात्मा स्वरुप को पाने की इच्छा करेगा। अतः अधिकारी सम्यक्त्वी जीव, श्रावक
और श्रमण ही हो सकता है, अन्य नही । प्र.155 प्रस्तुत भाष्य का सम्बन्ध किससे है ? उ. चैत्यवंदन भाष्य का सम्बन्ध चैत्यवंदन भाष्य की प्रथम गाथा के तीसरे
और चौथे चरण ‘बहु वित्ति-भास चुण्णी - सुयाणुसारेण वुच्छामि' में ग्रन्थकार ने ग्रन्थ में स्पष्ट किया है। भाष्यकार कहते है कि 'भाष्य त्रयम्' में स्वमति से नही लिख रहा हूँ। भाष्य त्रयम् का सम्बन्ध परमात्मा महावीर के मूल सूत्रों (आगमों), वृत्ति भाष्य और चूर्णि से है। चैत्यवंदनादि भाष्य त्रयम् का जो स्वरुप मूल सूत्रादि में वर्णित है, उसी को आधार बनाकर में चैत्यवंदन, गुरूवंदन और प्रत्याख्यान भाष्य की रचना कर रहा हूँ।
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अनुबंध चतुष्टय का कथन
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