________________
तीनों कालों को एक साथ में जानते है, देखते है। इस कारण से वे अरहन्त कहलाते है। अरथांत - अरहंत पद का संस्कृत भाषा में 'अरथांत' रूप बनता । 'रथ' लोक में प्रसिद्ध है । यहाँ रथ शब्द समस्त प्रकार के परिग्रह क उपलक्षण है । अंत शब्द विनाश (मृत्यु) का वाचक है। अतः अरथांत यानि परिग्रह और मृत्यु से रहित । | अरिहंत - "अरिहननात अरिहंतः अरीन् राग द्वेषादीन् हंतीति अरिहंताः।" अरि यानि शत्रु और हंत यानि नष्ट करना अर्थात् जिन्होंने रागद्वेष रूपी शत्रुओं का नाश कर दिया है, वे अरिहंत कहलाते है जैसे बीज के सर्वथा जल जाने पर उसमें फिर अंकुर उत्पन्न नहीं होता है वैसे ही कर्म रूपी बीज के जल (नष्ट) जाने पर भव रूपी अंकुर उत्पन्न नही होता है, वे अरिहंत है। ,
तत्वार्थ सूत्र (अंतिमकारिका गाथा 8), शास्त्रवार्ता समुच्चय अरूहंत - अ + रूह, अर्थात् जो वापस पैदा न हो । 'रूह' धातु का अर्थ उगना या पैदा होना होता है। शास्त्रों में कहा है - दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाऽङ्कुर । कर्म बीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्कुरः ॥ शास्त्र समुच्चय अर्थात्, जिस प्रकार बीज के खाक हो जाने पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता, वैसे ही कर्म बीज के समूल नष्ट हो जाने पर भव-भ्रमणा (जन्म-मरण) का पौधा नही उगता । यानि समस्त कर्मों के नष्ट हो जाने से वे संसार रूपी जंगल में दुबारा उत्पन्न नही होते है। ऐसे जन्म-मरण की वेदना से रहित अरूहंत कहलाते है ।
412
परिशिष्ट
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org