Book Title: Chaityavandan Bhashya Prashnottari
Author(s): Vignanjanashreeji
Publisher: Jinkantisagarsuri Smarak Trust

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Page 429
________________ हुए अंगारों में एक कोयला सा दिखाई देता है। ऐसे अद्वितीय सौन्दर्य से युक्त होने के कारण परमात्मा को समग्र रूपवान् कहा है। प्र.1455 परमात्मा समग्र यशस्वी कैसे है ? .. उ. परमात्मा राग-द्वेष नामक आंतर शत्रुओं को पराजित कर आत्म विजेता बने, घोर उपसर्ग और परिषह को धैर्यतापूर्वक सहकर महावीर बने, इस प्रकार से अतुल विजयवंत पराक्रम के कारण परमात्मा तीनों लोकों में यशस्वी है । परमात्मा का यश यावत् चन्द्र दिवाकर के समान तीनों लोकों में प्रतिष्ठित है। प्र.1456 समग्र श्री से क्या तात्पर्य है ? श्री यानि लक्ष्मी (आंतरिक व बाह्य) अर्थात् परम ज्ञान, परम तेज, परम सुख । बाह्य लक्ष्मी (ऋद्धि) - तीर्थंकर परमात्मा चारों घाती कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात् तीर्थंकर पद की अपूर्व सम्पदा-तीन गढ़ युक्त रत्न जड़ित समवसरण, अष्ट प्रातिहार्य, 34 अतिशय, वाणी के 35 गुण; इन बाह्य अतिशय से युक्त होने के कारण परमात्मा समग्र श्री गुण के धनी है। आंतरिक श्री - तीर्थंकर परमात्मा में सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान - केवलदर्शन होता है इस कारण वे समग्र श्री कहलाते है। प्र.1457 अरिहंत परमात्मा में धर्म गुण कैसे सर्वोत्कृष्ट होता है ? उ. अरिहंत परमात्मा में हेतु रूप धर्म यानि सम्यग्दर्शन - सम्यग्ज्ञान - सम्यग्चारित्र सर्वोत्कृष्ट होता है और फल रूप धर्म यानि सम्यग्दर्शन आदि की आराधना से क्षमादि आंतरिक फल एवं तीर्थंकर पद की प्राप्ति ++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++ परिशिष्ट 414 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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