Book Title: Chaityavandan Bhashya Prashnottari
Author(s): Vignanjanashreeji
Publisher: Jinkantisagarsuri Smarak Trust

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Page 436
________________ उ. अहि उत्कृष्ट आत्मवीर्य, मेरू पर्वत के समान अडोल अवस्था तथा शैलेशीकरण की अभियुक्ति रूप उत्कृष्ट आत्मवीर्य । प्र.1477 अरिहंत (तीर्थंकर ) परमात्मा को 'आदिकर' (आइगराणं) क्यों कहते है ? अरिहंत परमात्मा केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् श्रुत और चारित्र धर्म की आदि (प्रारम्भ) करते है इसलिए आपश्री को आदिकर कहते है। प्र.1478 श्रुत धर्म का आदि कैसे करते है ? उ. केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात् त्रिपदी (उपन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुव्वेइ वा) के दान द्वारा नवीन द्वादशांगी की आदि करते है अर्थात् द्वादशांगी की रचना करते है। प्र.1479 द्वादशांगी तो शाश्वत है फिर नवीन द्वादशांगी की रचना कैसे अर्थात् फिर द्वादशांगी के आदिकर कैसे ? उ. अर्थ की अपेक्षा से द्वादशांगी शाश्वत है, शब्द की अपेक्षा से नही । क्योंकि शब्द की अपेक्षा से प्रत्येक तीर्थंकर परमात्मा के अतिशय के - प्रभाव से शासन में नवीन द्वादशांगी की रचना होती है । प्र.1480 अर्थ अनभिलाप्य है (बोला नहीं जा सकता) क्योंकि अर्थ शब्द रूप नहीं, फिर तीर्थंकर परमात्मा अर्थ को कैसे कहते है ? शब्द के अर्थ का ज्ञान करवाना, कार्य है। इसलिए कारण में कार्य के उपचार से शब्द 'अर्थ' है। जैसे आचारांग सूत्र आचार वचन वाला होने से अर्थात् आचार प्रणाली से सम्बन्धित होने से आचारवाला कहलाता प्र.1481 चारित्र धर्म के आदिकर तीर्थंकर परमात्मा कैसे है ? उ... तीर्थंकर परमात्मा ही सर्वप्रथम धर्म के साधन (उपाय)-सामायिक, चैत्यवंदन भाष्य प्रश्नोत्तरी 421 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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