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प्र.624 भाव रहित पर क्रिया से शुद्ध और भाव व क्रिया दोनों से अशुद्ध उपरोक्त दोनों प्रकार की वंदना किसके होती है ?
उ. होइ य पाएणेसा, किलिट्ठ मंद बुद्धीण ।
पाएण दुग्गड़ फला, विसेसओ दुस्समाए उ || पंचाशक प्रकरण गाथा 41 उपरोक्त वंदना अधिकांश अतिशय संक्लेश वाले मंद बुद्धिवाले मिथ्यात्वी जीव के होती है । कभी - उपयोग रहित अवस्था के अन्दर उपरोक्त दोनों
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प्रकार की वंदना संक्लेश रहित जीव को भी होती है ।
प्र.625 कुछेक आचार्यों ने उपरोक्त दोनों वंदना ( भाव अशुद्ध पर क्रिया शुद्ध
( द्रव्य शुद्ध) और भावं व क्रिया दोनों अशुद्ध ) को लौकिक वंदना क्यों कहा है ?
उ. 'जमुभय जगग सभावा एसा विहिणेयरेहिं ण उ अण्णा । ता एयस्सा भावे, इमीइ एवं कहं बीयं ' ॥
उपरोक्त कथित दोनों वंदना से न तो विशेष शुभ फल की प्राप्ति होती है और नहीं अशुभ फल की । अतः यह लौकिक वंदना है ।
जैन वंदना (शास्त्रोक्तवंदना) यदि विधिपूर्वक की जाय तो इष्ट फल की प्राप्ति होती है और यदि अविधि से की जाय तो अनिष्ट फल की प्राप्ति अवश्य होती है, परन्तु लौकिक वंदना इससे परे है। अर्थात् न तो लौकिक वंदना मोक्ष फल प्रदायक होती है और न अनिष्ट फल प्रदायक होती है। प्र. 626 उपरोक्त कथित दोनों वंदना को आवश्यक निर्युक्ति में सावद्यमय
(मृषा रुप ) वंदन क्यों कहा है ?
तम्हा उ तदाभास्य, अण्णा ए सत्ति णा य ओणेया ।
मोसा भीसाणुराया, तदस्थ भावा णिओणे णं ।
चैत्यवंदन भाष्य प्रश्नोत्तरी
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