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चारों दिशाओं में चार महाध्वंज, एक-एक योजन प्रमाण ऊँचे घंटा तथा लघुपताकाओं से युक्त होते है। मणिपीठ, चैत्यवृक्ष, आसन, छत्र, चामर
और देवच्छंदों की रचना व्यंतर देव करते है । सर्व सामान्य से साधारण समवसरण की रचना उपरोक्त कथितानुसार करते है । कोई महान् देवता अकेला ही भक्ति पूर्वक ऐसे अद्वितीय समवसरण की रचना कर सकते है। सूर्यदेव स्वामी द्वारा संचरित दो स्वर्ण कमलों पर पाँव रखते हुए परमात्मा चलते है, शेष सात कमल अनुक्रम से परमात्मा के पीछे-पीछे चलते है। इन नव कमलों की क्रमशः पादस्थापन द्वारा कृतार्थ करते हुए . परमात्मा पूर्व द्वार से समवसरण में प्रवेश करते है । मणि पीठ की प्रदक्षिणा देने के पश्चात् परमात्मा पूर्व सिंहासन पर आरूढ़ होते है। पादपीठ पर पाँव का स्थापन करते है । तीर्थ को नमस्कार करने के
पश्चात् तीर्थंकर परमात्मा देशना फरमाते है। प्र.1397 गणधर भगवंत छद्मस्थ होते हुए भी छद्मस्थ नहीं है, ऐसा कब
प्रतीत होता है ? दूसरे प्रहर में पादपीठ पर अथवा राजा द्वारा लाये सिंहासन पर बैठकर जब गणधर भगवंत देशना फरमाते है, तब किसी के द्वारा प्रश्न किये जाने पर वे उसके असंख्याता भवों को ऐसे बताते है जैसे वे केवलज्ञानी हो छद्मस्थ नही हो।
लो.प्र.स. 30 गा. 970–974 प्र.1398 समवसरण में शिथिल आदरवाला बनकर आने वाले साधु को.
कौन सा प्रायश्चित मिलता है ? उ. . चतुर्गुरू नामक प्रायश्चित । प्र.1399 परमात्मा के विहार के समाचार देने वाले अनुचर को चक्रवर्ती,
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परिशिष्ट
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