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और अन्य देवतागण मिलकर परमात्मा की शिबिका को अपने स्कंधों पर उठाकर, जहाँ चिता निर्मित की गयी है, उस स्थान पर महोत्सवपूर्वक ले जाते है। इंद्र महाराजा स्वयं परमात्मा के शरीर को चिता में पधराते है । शक्रन्द्र देव की आज्ञा से रोता-बिलखता हुआ अग्नि कुमार परमात्मा की चिता में अग्नि प्रकट करता है । अग्नि शीघ्र प्रज्वलित हो. इस हेतु से इन्द्र की आज्ञा से वायु कुमार वायु की विकुर्णा करते है । चारों निकायों के तुरूष्क, काकतुंड आदि देव सुगन्धित द्रव्यों को चिता में डालते है। अग्नि तीव्रता से प्रदीप्त हो इसलिए घी और मधु से भरे घड़े अग्नि में डालते है । मात्र अस्थियों के शेष रहने पर मेघकुमार क्षीर समुद्र से लाये जल से परमात्मा की जलती चिता को शांत करते है। शक्रन्द्र चमरेन्द्र, बलींद्र और ईशानेंद्र आदि देवता परमात्मा की दाढ़ाओं को ग्रहण करते है। शेष अंगोपांग की अस्थियों को अन्य देवतागण भक्ति और आचार से ग्रहण करते है । विद्याधर चिता में बची भस्म को ग्रहण करते है । मनुष्य भी परमात्मा के शरीर की रज को ग्रहण करने हेतु हौड दौड (पडापडी) लगाते है। जिससे उस स्थान पर बिना खोदे ही एक बडा खड्डा बन जाता है । इन्द्र की आज्ञा से अन्य देवता गण उस खड्डे को रत्नों से पूरते (भरते) है । उस पवित्र स्थान की पवित्रता को बनाये रखने के लिए वहाँ रत्नों का एक अरिहंत परमात्मा का चैत्य स्तुप निर्मित करते है। इस प्रकार भक्ति भाव से भरकर इन्द्र आदि देव परमात्मा का निर्वाण महोत्सव मनाते है।
___ लो.प्र.स. 30 गा. 1022-1055 प्र.1426 तीर्थंकर परमात्मा के साथ यदि गणधर और मुनि भगवंतों का
निर्वाण होता है तब उनके लिए किस दिशा में कौनसी आकृति
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परिशिष्ट
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