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श्वासोच्छ्वास कमल जैसा सुगन्धित होता है ।
उपरोक्त चार अतिशय जन्म से होते है । इसलिए इन्हें सहजातिशय
कहते है ।
एक योजन प्रमाण समवसरण की भूमि में कोड़ाकोड़ी देव, मनुष्य तथा तिर्यंच निराबाध समाविष्ट हो जाते है ।
15.
भगवन्त की योजनगामिनी वाणी (अर्धमागधी भाषा) देव, मनुष्य तथा तिर्यंच सभी अपनी-अपनी भाषा में समझते है ।
चारों दिशाओं में पच्चीस-पच्चीस योजन तक सब प्राणियों के सब प्रकार के रोग शांत हो जाते है तथा नये रोग नहीं होते है ।
पूर्वभव सम्बन्धी या ज़ाति स्वभावजन्य वैर शान्त हो जाता है । दुष्काल - दुर्भिक्ष नही होता ।
स्वचक्र या परचक्र का भय नही होता ।
दुष्ट देवादि कृत मारी का उपद्रव शान्त हो जाता है ।
ईति अर्थात् धान्यादि को नाश करने वाले मूषक, शलभ, शुक आदि जीवों की उत्पत्ति नही होती ।
13. अतिवृष्टि नही होती ।
14.
अनावृष्टि नही होती ।
ये समस्त उपद्रव जहाँ-जहाँ परमात्मा विचरण करते है, वहाँ-वहाँ चारों दिशाओं में पच्चीस-पच्चीस योजन तक नही होते है ।
परमात्मा के मस्तक के पीछे उनके शरीर से निसृत वर्तुलाकार सूर्य से बारह गुणा तेजवाला भामंडल होता है ।
(5-15 तक के 11 अतिशय जब परमात्मा को केवलज्ञान होता है, तब उत्पन्न होते है । इसलिए ये कर्मक्षय
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जन्य अतिशय
चैत्यवंदन भाष्य प्रश्नोत्तरी
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