SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. श्वासोच्छ्वास कमल जैसा सुगन्धित होता है । उपरोक्त चार अतिशय जन्म से होते है । इसलिए इन्हें सहजातिशय कहते है । एक योजन प्रमाण समवसरण की भूमि में कोड़ाकोड़ी देव, मनुष्य तथा तिर्यंच निराबाध समाविष्ट हो जाते है । 15. भगवन्त की योजनगामिनी वाणी (अर्धमागधी भाषा) देव, मनुष्य तथा तिर्यंच सभी अपनी-अपनी भाषा में समझते है । चारों दिशाओं में पच्चीस-पच्चीस योजन तक सब प्राणियों के सब प्रकार के रोग शांत हो जाते है तथा नये रोग नहीं होते है । पूर्वभव सम्बन्धी या ज़ाति स्वभावजन्य वैर शान्त हो जाता है । दुष्काल - दुर्भिक्ष नही होता । स्वचक्र या परचक्र का भय नही होता । दुष्ट देवादि कृत मारी का उपद्रव शान्त हो जाता है । ईति अर्थात् धान्यादि को नाश करने वाले मूषक, शलभ, शुक आदि जीवों की उत्पत्ति नही होती । 13. अतिवृष्टि नही होती । 14. अनावृष्टि नही होती । ये समस्त उपद्रव जहाँ-जहाँ परमात्मा विचरण करते है, वहाँ-वहाँ चारों दिशाओं में पच्चीस-पच्चीस योजन तक नही होते है । परमात्मा के मस्तक के पीछे उनके शरीर से निसृत वर्तुलाकार सूर्य से बारह गुणा तेजवाला भामंडल होता है । (5-15 तक के 11 अतिशय जब परमात्मा को केवलज्ञान होता है, तब उत्पन्न होते है । इसलिए ये कर्मक्षय 1 जन्य अतिशय चैत्यवंदन भाष्य प्रश्नोत्तरी Jain Education International For Personal & Private Use Only - 407 www.jainelibrary.org
SR No.004240
Book TitleChaityavandan Bhashya Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVignanjanashreeji
PublisherJinkantisagarsuri Smarak Trust
Publication Year2013
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy