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भावों से युक्त लेकिन वर्णोच्चार से अशुद्ध, ऐसी भाव वंदना भी तीर्थकर
परमात्मा की दृष्टि में शुभ है। प्र.621 तीथंकर परमात्मा ने भाव से शुद्ध लेकिन वर्णोच्चार से अशुद्ध
चैत्यवंदन को शुभ क्यों कहा ? उ. क्योंकि भाव, क्रिया से अधिक श्रेष्ठ होते है । भाव ही मोक्ष का अभ्युदय
है, उसके फल का साधन है । कहा हैक्रिया शून्यश्च यो भावो, भावा शून्या च या क्रियां। अनयोरुतरं ज्ञेयं भानु खद्योतयोरिव ॥ क्रिया रहित भाव और भाव रहित क्रिया-इन दोनों के बीच सूर्य और जुगनू जितना अन्तर है। क्रिया रहित भाव सूर्य के सामन जबकि भाव रहित क्रिया जुगनु के सामन है । इसलिये तीर्थंकर परमात्मा ने भाव से शुद्ध लेकिन वर्णोच्चार से अशुद्ध चैत्यवंदन को शुभ कहा है । ऐसा चैत्यवंदन 'प्रशस्त
व मोक्षदायक' कहलाता है। प्र.622 आ.नि.के अनुसार कौनसी वंदना अशुद्ध और सावद्यमय वंदना है ? उ. भाव रहित पर क्रिया से शुद्ध (वर्णोच्चार से शुद्ध) वंदना, अशुद्ध वंदना
है। अपुनर्बन्धक आदि से कृत श्रद्धा-भक्ति रहित, शुद्ध उच्चारण से युक्त
वंदना, सावद्यमय (झुठ रुप) वंदना है। प्र.623 भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक नियुक्ति में कौनसी वंदना को चिह्न रुप
वंदना कहा है ? उ. भाव व वर्ण उच्चारण आदि विधि-इन दोनों से रहित कृत चैत्यवंदना, चिह्न
रुप वंदना है । यह अशुद्धफलप्रदायक है।
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पांचवाँ चैत्यवंदना द्वार
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