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गया ? जैसे शरीर के किसी भाग में काँटा, कील तथा तीर. आदि घुसने पर . मनुष्य क्षुब्ध हो जाता है वैसे ही अन्तर में रहा हुआ सूत्रोक्त शल्य त्रय (माया, निदान व मिथ्यादर्शन) भी साधक की अन्तर आत्मा को सालता
रहता है। ये तीनों ही शल्य कर्म बन्धन के हेतु है । प्र.1122 श्रद्धा (सद्धाए.) क्या है ?
मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षयोपशम एवं परमात्मा के प्रति प्रशस्त भक्ति
रागादि से उत्पन्न हुआ चित्त प्रासाद 'श्रद्धा' है । प्र.1123 कायोत्सर्ग करने से पूर्व सद्धाए क्यों कहना पडा ? उ. मैं किसी बलाभियोगादि अर्थात् बलात्कार, गतानुगतिकता, पौद्गलिक
आशंसा, कपट, दबाब अथवा किसी की आज्ञा के वशीभूत कायोत्सर्ग नही कर रहा हूँ, बल्कि स्वयं की इच्छा से कर रहा हूँ । ऐसा स्पष्ट
करने के लिए कहा गया। . प्र.1124 श्रद्धा रखने से क्या लाभ होता है ? . उ. मणिरत्न के समान श्रद्धा हमारे चित्त के कालुष्य को नष्ट कर मनं को
सम्यग् अमल-विमल बनाती है। . प्र.1125 श्रद्धा को मणिरत्न की भाँति क्यों कहा गया ? उ. जिस प्रकार जल शोधक मणिरत्न तालाब के पानी की गन्दगी, मलीनता,
कलुषिता को दूर कर जल को निर्मल व स्वच्छ बनाता है, उसी प्रकार श्रद्धा, चित्त (मन) में उत्पन्न तत्त्व सम्बन्धी संशय, भ्रम चाञ्चल्य, अतत्त्व श्रद्धा आदि समस्त भ्रान्तियों को दूर कर मन को तीर्थंकर परमात्मा
द्वारा उपदिष्ट तत्त्व मार्ग में लगाता है । जिससे मन सम्यग् बनता है। ++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++ 296
अट्ठारहवा हेतु द्वार
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