________________
तत्त्वार्थ चिंतन रुप अनुप्रेक्षा अत्यन्त बढती रहती है । यही अत्यन्त परिपक्व श्रद्धा-मेधा-धृति धारणापूर्वक वृद्धिगत अनुप्रेक्षा का परिपाक, . अंत में जा कर अपूर्वकरण-महासमाधि की तत्त्व रमणता में पर्यवसित
होता है । इसलिए श्रद्धादि को महासमाधि का बीज कहा गया है। प्र.1143 श्रद्धादि बीजों का परिपाक कैसे होता है ? उ. श्रद्धा-मेधादि की वृद्धि से कुतर्क प्रेरित मिथ्या विकल्पों की निवृति होती.
है, जिससे जीव श्रवण-पाठ-प्रतिपति-इच्छा-प्रवृत्ति-विघ्नजय आदि की क्रिया में रमण करता है, जिसे परिपाक क्रिया कहते है। यही परिपाक क्रिया अतिशय बढने पर उच्च स्थैर्य एवं सिद्धि में परिणत होती है। जो कि सामर्थ्य योग प्रेरक तत्त्व-पदार्थ का कारण होने से अपूर्वकरण ,
को आकर्षित करता है। प्र.1144 श्रवण, पाठ, प्रतिपति, इच्छा, प्रवृत्ति, विजजय-सिद्धि-विनियोग
से क्या तात्पर्य है ? __ श्रवण- धर्मशास्त्र को सुनना । ।
पाठ- धर्मशास्त्र के सुत्रों को पढना । प्रतिपति- सूत्र के अर्थ का प्रतीति युक्त बोध । इच्छा - शास्त्राज्ञा के अनुष्ठान की अभिलाषा । प्रवृत्ति- शास्त्राज्ञा का पालन करना । विघ्नजय - प्रवास में कण्टक-ज्वर दिङ्मोह समान जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट विघ्नों पर विजय प्राप्त करना । अर्थात् आंतर बाह्य निमितों से जरा सा भी चलित न होना ।
सिद्धि- अनुष्ठान के विषयभूत अहिंसा पदार्थ को आत्मसात् करना अर्थात् ++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
___ अट्ठारहवाँ हेतु द्वार
300
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org