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उ. वैयावृत्यादि करने वाले सम्यग्दृष्टि देव अविरति धर (अव्रती) होते है
जबकि कायोत्सर्ग कर्ता साधक व्रतधारी होते है । इसलिए अव्रतधारी को व्रतधारी के द्वारा वंदन, पूजन करना उचित नही है । इस हेतु से -
सीधा अन्नत्थ सूत्र पढकर कायोत्सर्ग किया जाता है। प्र.1154 कायोत्सर्ग कर्ता मुझे उद्देश्य कर कायोत्सर्ग कर रहा है, ऐसा
वैयावच्चकारी सम्यग्दृष्टि देवी-देवताओं का ज्ञानापयोग बना ही. रहता है ऐसा नियम तो नही है, जब उन्हें ऐसा ज्ञान नहीं है तब उस परिस्थिति में कृत कायोत्सर्ग उनके भावों की वृद्धि में कैसे सहायक होते हैं? देवी-देवताओं को स्व सम्बन्धी कायोत्सर्ग का ज्ञान नही होने पर भी कायोत्सर्ग कर्ता के विघ्न शमन होते है और पूण्य का उपार्जन होता है। यह कायोत्सर्ग शुभकारी, भाव अभिवृद्धक होता है, इसकी सिद्धि 'वेयावच्चराणं.....करेमि काउस्सग्गं 'के कथन से होती है, क्योंकि यह कायोत्सर्ग- प्रवर्तक वचन है और आप्त पुरुषों का वचन कभी भी निरर्थक (मिथ्या) नही होता है । अत: यह कायोत्सर्ग उनके भाव
अभिवृद्धि में सहायक बनते है। प्र.1155 कायोत्सर्ग कर्ता के कायोत्सर्ग के फलस्वरुप कार्य की सिद्धि
(विघ्नोपशमन-पुण्योपार्जन) होती है इसका ज्ञापक कौन है ? उ. इसका ज्ञापक कायोत्सर्ग प्रवर्तक सूत्र वचन है। सूत्र वचन आप्त पुरुष
के द्वारा उपदिष्ट होने से व्यभिचारी (निष्फल, निरर्थक) नही हो सकते। जो कर्म जिसको उद्देश्य में रखकर किया जाता है, वह कर्म अपने
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अट्ठारहवाँ हेतु द्वार
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