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अलंकार की रचना वाले वर्षों से संयुक्त स्तोत्र, स्तुति, स्तवन होने चाहिए । जैसेभव्याम्भोज विबोधकतरणे विस्तारिकर्मावली रम्भासामज नाभिनन्दन ! महानष्टापदा भासुरैः । भक्त्या वन्दितपादपद्म विदुषां संपादय प्रोज्झितारम्भासामज नाभिनन्दन महानष्टापदा भासुरैः ॥
___ शोभनदेव रचित श्री ऋषभदेव जिनेन्द्र-स्तुति 4. भाव विशुद्धि का कारण- 'नवमर साभिव्यञ्जनया' नवमां शांत
रस अभिव्यक्त करने वाले चित्त शुद्धिजनक स्तोत्र होने चाहिए। जैसे यदि नियतमशांतिं नेतुमिच्छोपशांति, समभिलषत शांति तद् विधाप्यप्त शान्तिम् । प्रहत जगदशान्ति जन्मतोऽप्यान्त शान्तिम्, नमत विनतशान्तिं हे जना ! देवशान्तिम् ।।
. धर्मधोष सूरिवर रचित चतुर्विंशति जिन स्तोत्र । 5. संवेग परायण-संसार का भय अथवा मोक्षाभिलाषा स्वरुप संवेग ।
अर्थात् संवेग परायण स्तोत्र जो गन्तव्य (मोक्ष) प्राप्ति में सहायक हो। जैसे - त्वं नाथ । दुःखि जनवत्सल । हे शरण्य ।
कारुण्य पुण्यवसते । वशिनां वरेण्य । कल्याणमंदिर स्तोत्र गाथा 39 6. पवित्र - जिससे नये पुण्य कर्म का बन्धन हो, ऐसे पवित्र, स्तवन,
बोलने चाहिए। 7. पाप गर्दा गर्भित- 'पापानां राग द्वेष मोह कृतानां स्वयं कृतत्वेन'
परमात्मा के संमुख स्वयं कृत पापों की आलोचना निंदा आदि करना । जैसे -
चैत्यवंदन भाष्य प्रश्नोत्तरी
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