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तक त्याग करके लोगस्स का कायोत्सर्ग करना ही प्रायश्चित्त है। प्र.1078 व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) प्रायश्चित्त कब किया जाता है ? उ. 1. दुःस्वप्न, दुश्चिन्ता, मलोत्सर्ग, मूत्र का अतिचार, महानदी और महाअटवी के पार करने आदि में व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त किया जाता है।
चा.सा./142/3 2. मौनादि धारण किये बिना लोच करने पर, उदर में से कृमि निकलने
पर, हिम, दंश-मशक यद्वा महाव्रतादि के संघर्ष से अतिचार लगने पर, स्निग्ध भूमि, हरित, तृण, यद्वा कर्दम आदि के ऊपर चलने पर, घुटने तक जल में प्रवेश करने पर, अन्य निमित्तक वस्तु को उपयोग में लाने . पर, पुस्तक, प्रतिमा आदि के हाथ से गिर जाने पर, पंच स्थावर काः विघात करने पर, बिना देखे (प्रमार्जन) मल - मूत्रादि भूमि पर परठने पर, थुकनें पर, पक्ष से लेकर प्रतिक्रमण पर्यन्त व्याख्यान प्रवृत्त्यन्तादिक में कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त किया जाता है। अन. ध.7/53 भाषा दुःस्वप्न आने पर या सूत्र विषयक उद्देश - समुद्देश, अनुज्ञा, प्रस्थापन, प्रतिक्रमण, श्रुत स्कन्ध व अंग परावर्तनादि अविधि से करने पर उसके
परिहार स्वरुप कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त किया जाता है। प्र.1079 'तप प्रायश्चित्त' से क्या तात्पर्य है ? उ. सचित्त पृथ्वीकाय आदि का संघट्टा होने पर दंड रुप मुनिभगवंत को
‘जीत कल्प छेद ग्रन्थानुसार' छः महिने तक नीवि आदि तप करने का
जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह तप प्रायश्चित्त है । प्र.1080 तप प्रायश्चित्त कैसे साधुओं को दिया जाता है ? ++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
अट्ठारहवा हेतु द्वार
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