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के लिए विधान किया गया है, उनके न करने पर प्रतिक्रमण किया जाता है ।
3. आगम से ही जाने जा सकें, ऐसे निगोदादि सुक्ष्म पदार्थों के विषय में अश्रद्धा तथा जैन धर्म प्रतिपादित तत्त्वों की सत्यता के विषय में संदेह करने पर अश्रद्धा उत्पन्न होती है तब प्रतिक्रमण किया जाता है। 4. असत्प्ररूपणा - जैन शास्त्रों में प्रतिपादित तत्त्वज्ञान के विरुद्ध विचार प्रतिपादन करने पर प्रतिक्रमण किया जाता है ।
प्र. 746 ईर्यापथिकी से क्या तात्पर्य है ?
उ.
"ईर्या पथः साध्वाचारः तत्र भवा ईर्यापथिकी" अर्थात् श्रेष्ठ आचार और उसमें गमनागमानादि के कारण असावधानी से जो दूषण रुप क्रिया हो जाती है, उसे ईर्यापथिकी कहते है । आचार्य हेमचन्द्र आचार्य नमि के अनुसार “ईरणं ईर्यागमन मित्यर्थः तत् प्रधानः पन्था ईर्ष्या पथस्तत्र भव विराधना ईयीपथिकी ।" अर्थात् ईर्ष्या यानि गमन| गमन युक्त जो पथ (मार्ग) है, वह ईर्यापथ कहलाता है। ईर्यापथ में होने वाली क्रिया, ईयापथिकी होती है ।
प्र. 747 ईर्यापथ - विराधना से हुए पाप की शुद्धि हेतु ईयीपथिक प्रतिक्रमण किया जाता है फिर निद्रा से जागने के बाद या अन्य कारण के बाद मुनि ईर्यापथिक प्रतिक्रमण क्यों करता है ?
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उ. "ईर्यापथे ध्यानमै नादिक भिक्षुव्रतम् " अर्थात् ईर्यापथ, ध्यान, मौनव्रत आदि साधु का आचार है। इस दृष्टि से ईर्ष्यापथ विराधना का अर्थ है - साध्वाचार के उल्लंघन रुप कोई विराधना हुई हो तो उस पाप की शुद्धि हेतु ईर्यापथिक प्रतिक्रमण किया जाता है ।
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आठवाँ वर्ण
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