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2. विद्या और ध्यान के साधनों के ग्रहण करने आदि में, प्रश्न विनय
के बिना प्रवृत्ति करना दोष है, उसका प्रायश्चित्त आलोचना से किया जाता है।
रा.वा/9/22/10/621/36 3. आचार्य के बिना पूछे आतापनादि करना । 4. दुसरे साधु की अनुपस्थिति में उनके उपकरण आदि को बिना पूछे
“ग्रहण करना। 5. प्रमादवश आचार्यादि की आज्ञा का उल्लंघन करना । 6. बिना आज्ञा के संघ में प्रवेश करना। 7. धर्म कथादि के प्रसंग से देश काल नियत आवश्यक कर्तव्य व व्रत
विशेष का विस्मरण होने पर उन्हें पुनः करना । इस प्रकार के समस्त दोषों का प्रायश्चित्त आलोचना से किया जाता है।
अन.घ./7/53, भा.पा./टी/78/223/14 प्र.1067 आलोचना प्रायश्चित्त किनको करना ही होता है ? उ. सातिचारी मुनि को तो यथा सम्भव पूर्वोक्त आलोचना कर प्रायश्चित्त लेना
ही होता है । यह आलोचना गमनागमनादि क्रियाओं में सम्यग् उपयोग वाले निरतिचार अप्रमत, छद्मस्थ मुनि को भी अवश्य करणीय है।
केवलज्ञानियों को तो कृतकृत्य होने से आलोचना नही आती । प्र.1068. निरतिचारी मुनि आलोचना क्यों करता है ? क्योंकि उनकी प्रवृत्ति
सूत्रानुसार होने से वे आलोचना के बिना भी शुद्ध ही होते है ? उ. गमनागमन करते जो कुछ कायिक प्रवृत्ति हुई या प्रमाद का सेवन हुआ,
उसकी शुद्धि के लिए निश्चित आलोचना करनी चाहिए । प्र.1069 प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त से क्या तात्पर्य है ?
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अट्ठारहवाँ हेतु द्वार
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