________________
रूपातीत प्रणिधान : 'योगिगम्यमहतो ध्यानम्' अरिहंत भगवान के
रूपातीत स्वरूप का ध्यान जो योगीगम्य है, वह 'रूपातीत प्रणिधान' है। प्र.568 महर्षि हरिभद्र सूरिजी म. के अनुसार प्रणिधान का स्वरुप बताइये? उ. 'विशुद्धभावनासारं तदर्थापित मानसम् ।
यथाशक्ति क्रिया लिङ्ग प्रणिधानं मुनिर्जगौ ॥' विशुद्ध भावना प्रधान हो मन की एकाग्रता अर्थात् मन प्रस्तुत विषय में समर्पित एवं उसकी ज्ञापक बाह्य किया यथाशक्ति हो तो वह प्रणिधान है। प्रणिधान में विशुद्ध भावना प्रधान, मन की एकाग्रता एवं आन्तरिक भावों
के साथ-साथ बाह्य क्रिया भी विशुद्ध होनी चाहिए । प्र.569 मन समर्पण प्रणिधान में कैसे करें ? उ. प्रस्तुत अनुष्ठान विषय अर्थात् अनुष्ठान अगर चैत्यवंदन से सम्बन्धित है तो
इसके सूत्र से वाच्य पदार्थ में मन को एकाग्रता पूर्वक जोड़ना । प्र.570 विशुद्ध भावना प्रधान मन की एकाग्रता को ललित विस्तरा के
रचियता महर्षि पू. हरिभद्रसूरी म. ने प्रणिधान कहा है । विशुद्ध भावना
और अशुद्ध भावना आंतरिक भाव होते है, जो छद्मस्थ जीव को तो दिखाई नही देते है, फिर कैसे ज्ञात होगा अमुक व्यक्ति में
प्रणिधान है या नही ? उ. 'यथाशक्ति क्रियालिङ्ग' अर्थात् व्यक्ति की शक्तिनुसार बाह्य क्रिया को
देखकर यह ज्ञात हो जाता है कि अमुक व्यक्ति में प्रणिधान है। प्रणिधान
में आन्तरिक भावों के साथ बाह्य क्रिया भी होनी आवश्यक होती है । ++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
दशम प्रणिधान त्रिक
152.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org