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"बिटट्ठाई सुरभि जलथलयं दिव्व कुसुमनीहारिं । पयरिंति समंतेणं दसद्धवण्णं कुसुमवुद्धिं ॥" अधोमुख, गुंडवाले देवों द्वारा विकुर्वित फूलों से भी अधिक शोभावाले, जल व थल में उत्पन्न ऐसे पंचवर्ण वाले फूलों की वृष्टि देवता समवसरण में चारों ओर करते है। एक मत यह भी है कि जिस देश (स्थान) में साधु-साध्वी आते-जाते या बैठते है, उस देश में देवता पुष्प वृष्टि नहीं करते है, किंतु यह कथन भी उचित प्रतीत नही होता है । कारण, समवसरण में साधुओं के आने-जाने बैठने का स्थान नियत (निश्चित्त) नही होता है। वे सर्वत्र गमनागमन कर सकते है। अतः पूर्वोक्त प्रश्नों का सर्व गीतार्थ-सम्मत उतर तो यह है कि समवसरण में बरसाये गये पुष्प वास्तव में सचित्त ही है। किंतु, तीर्थंकर परमात्मा के अचिन्त्य प्रभाव के कारण उनके ऊपर गमनागमन करने पर भी जीवों को पीड़ा नही होती, प्रत्युत सुर, नर, मुनिवर के गमनागमन से
सुधा सिंचित की तरह पुष्प और अधिक विकस्वर बनते है । प्र.470 दिव्य ध्वनि प्रातिहार्य के अन्तर्गत कैसे आ सकती है, क्योंकि वह
देवकृत न होकर स्वयं परमात्मा की ही ध्वनि होती है? उ. तीर्थंकर परमात्मा की वाणी, स्वाभाविक रुप से मधुर होती है। किंतु देवों
का यह कर्तव्य है कि जब परमात्मा ‘मालकोश राग' में देशना फरमाते है, वे दोनों ओर से वीणा, वेणु आदि से स्वर देकर परमात्मा की वाणी को
और अधिक मधुर बनाते है । अतः अंशत: दिव्य ध्वनि प्रतिहारी कृत कहलाती है। लोक में देखा जाता है कि हारमोनियम, तबला, वीणा आदि
का स्वर गायक के स्वर का सहकारी होता है, वैसे ही दिव्य ध्वनि भी ++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++ चैत्यवंदन भाष्य प्रश्नोत्तरी .
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