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की अभिलाषा होती है, उसके लिए शुभ व अशुभ सभी भाव समान होते है। प्र.542 तीर्थंकर पद की कामना को शास्त्रों में निदान क्यों कहा गया है ? उ. तीर्थंकर परमात्मा का समवसरण, स्वर्ण कमल आदि अतिशय युक्त बाह्य
ऋद्धि-समृद्धि, वैभव आदि को देखकर अथवा सुनकर मैं भी उस तीर्थंकर की अतिशय युक्त सम्पदा को प्राप्त करूँ, उनका भोग,उपभोग करूँ । इस प्रकार की ऋद्धि और भोग की वांच्छा से तीर्थंकर बनने की आशंसा में अप्रशस्त राग कारण है, क्योंकि ऐसी आशंसा में परमार्थ भावना की अपेक्षा स्वार्थ भावना प्रधान (मुख्य) होती है; जो संसार का कारण होती है। अर्थात् ऐसी यह प्रार्थना संसार वर्धक, आत्मघातक और मोक्ष सुख बाधक होती है। इसलिए ऋद्धि की वांच्छा से कृत तीर्थंकर पद की कामना को शास्त्रों
में निदान कहा है और उसकी आशंसा का निषेध किया है। प्र.543 कौन से शास्त्रों में तीर्थंकर पद की आशंसा का निषेध किया है ? उ. दशाश्रुत स्कन्ध, ध्यान शतक में । प्र.544 फिर कैसी तीर्थंकर पद की प्रार्थना निषिद्ध नहीं है ? उ. निरासक्त चित्तवृत्ति पूर्वक कृत आशंसा निषिद्ध नही है। जैसे तीर्थंकर
परमात्मा एक मात्र शुद्ध धर्म-मार्ग के प्रणेता, उपदेष्टा (उदेशक) है, लोकहितकारी है, निरुपम मोक्ष सुख प्रदायक है, अचिन्त्य चिंतामणि के समान है ऐसा लोकोपयोगी मैं भी बनूं । इस प्रकार की आशंसा युक्त तीर्थंकर पद की प्रार्थना निषिद्ध नहीं है। क्योंकि यहाँ स्वार्थ गौण और परमार्थ मुख्य
है । ऋद्धि की आसक्ति वश कृत प्रार्थना ही निषिद्ध है। प्र.545 निदान रुपी फरसु धर्म कल्पवृक्ष को काटने वाला कैसे है ? उ. निदान में पौद्गलिक सुखों की प्रबल आशंसा होती है और वह शुद्ध +++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
दशम प्रणिधान त्रिक
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